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भक्तामर स्तोत्र : २५ परिप्राप्य मृत्युं जयन्ति । शिवपदस्य शिवस्थानस्यान्यः पन्या मार्गः शिवः कल्याणकारी न स्यात् ।।२३।।
अन्वयार्थ—( मुनीन्द्र !) हे मुनियों के नाथ ! (मुनयः ) तपस्वीजन ! (त्वाम् ) आपको ( आदित्यवर्णम्) सूर्य की तरह तेजस्वी (अमलम् ) निर्मल और (तमसः पुरस्तात् ) मोहअन्धकार से परे रहने वाले (परमं पुमांसम्) परम पुरुष (आमनन्ति ) मानते हैं । वे ( त्वाम् एव ) आपको ही ( सम्यक् ) अच्छी तरह से { उपलभ्य) प्राप्त कर ( मृत्युम् ) मृत्यु को { जयति) जीतते हैं, इसके सिवाय' (शिवपदस्य ) मोक्षपद का ( अन्यः) दूसरा (शिवः ) अच्छा ( पन्थाः ) रास्ता ( न 'अस्ति') नहीं है।
भावार्थ—सांख्य मतवाले कमलपत्र की तरह निर्लेप, शुद्ध ज्ञानरूप पुरुष को मानते हैं, और अन्त में प्रकृतिजन्य विकारों को छोड़कर पुरुष की प्राप्ति को मोक्ष मानते हैं । आचार्य पानतुंग ने अपनी व्यापक दृष्टि से भगवान् के लिये ही परम् पुरुष बतलाया है, और साथ में यह भी कहा है कि आपको अच्छी तरह ( प्राप्त कर) जानकर ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है । जो आपसे दूर रहते हैं, उन्हें मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता ।।२३।। त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसङ्ख्यमाद्यं
ब्रह्माणमीश्वरमनंतमनंगकेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेक
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ।।२४।। योगीश, अव्यय, अचिंत्य, अनङ्गकेतु,
ब्रह्मा, असंख्य, परमेश्वर, एक नाना । ज्ञानस्वरूप, विभु. निर्मल, योगवेत्ता,
त्यों आद्य, सन्त तुझको कहते अनन्त ।। २४ ।। टीका-भो नाथ ! सन्तः सत्पुरुषाः । त्वां एवंविध वदंति