SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 3
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनन्तर राजा ने कहा- आपकी विद्वत्ता लोक में प्रसिद्ध है: परन्तु हमें अभी तक आपका दर्शन नहीं मिला । धनञ्जयजी ने कहा- कृपानाथ ! पृथ्वीपति ! आप जैसे पुण्यात्मा पुरुष का दर्शन बिना पुण्य के कैसे मिल सकता है ? आज मेरा भाग्य है जो साक्षात् दर्शन कर मेरा मनोरथ सफल हुआ हैं I राजा - आप इतने बड़े विद्वान् हैं फिर इतना छोटा "नाममाला' ग्रन्थ आपको नहीं शाभता । आपने अवश्य किसी बड़े ग्रन्थ को रचना की है अथवा करना प्रारम्भ किया होगा । द्वेषी कालिदास धनञ्जय की इतनी प्रशंसा सहन नहीं कर सका। उसने शीघ्र ही कहा – महाराज ! नाममाला हम लोगों की है। इसका यथार्थ नाम "नाममंजरी" है । ब्राह्मण ही इसके रचयिता हैं, वणिकों में इतनी बुद्धि कहाँ ? धनञ्जय से रहा नहीं गया— उन्होंने कहा – महाराज ! यह कृति मैंने बालकों के पठनार्थ रची हैं। हो सकता है इन लोगों ने मेरा नाम लोप करके अपना नाम रख लिया हो और नाममंजरी बना ली हो । विद्याविशारद राजा ने ग्रन्थ मँगवाया और स्वयं परीक्षा की। अन्य विद्वन्मण्डली से समर्थन पाकर कालिदास से कहा कि तुमने यह बड़ा अनर्थ किया है। दूसरों की कृति को छिपाकर अपनी कृति प्रसिद्ध करना चोरी नहीं तो क्या है ? कालिदास बिगड़ गया। वह बोला – ये धनञ्जय अभी कल तो उस मानतुंग के पास पढ़ता था जिसमें ज्ञान की गंध भी नहीं है, आज यह इतना विद्वान् कैसे हो गया जो ग्रन्थ रचने लगा। उस मानतुंग को ही बुलाइये । उससे शास्त्रार्थ करवा के देख लीजिये. इनके पाण्डित्य की परीक्षा हो जायेगी । धनञ्जय को भी गुरु के प्रति कहे गये अनादरपूर्ण वचन सहन नहीं हुए। वे कुपित होकर बोले- ऐसा कौन विद्वान् है जो मेरे गुरु पर आक्षेप करता हैं। पहले मेरे सामने आवे पीछे गुरुवर का नाम लेना । कालिदास को अपने ज्ञान का अभिमान था। उसने धनञ्जय से शास्त्रार्थ छेड़ दिया । धनञ्जय से शास्त्रार्थ में निरुत्तर हो कालिदास खिसिया गये और राजा में बोले- मैं इनके गुरु से शास्त्रार्थ करूँगा । यद्यपि राजा धनञ्जय के पक्ष की प्रबलता जानते थे पर कालिदास के
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy