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भक्तामर स्तोत्र के रचयिता मानतुंग- आचार्य
मालवा प्रान्त के उज्जैन नगर में राजा भोज राज्य करते थे। राजा गुणग्राही और विद्याप्रेमी थे। संस्कृत विद्या से तो उनकी गाढ़ रुचि थी । उनके राज्य में सभी लोक व्यवहार संस्कृत भाषा में ही चलता था। उनकी राज्य सभा में बड़े-बड़े संस्कृत विद्वान् थे । उनमें कालिदास, वररुन्नि आदि प्रसिद्ध थे ।
एक दिन नगर श्रेष्ठी सुदत्त अपने पुत्र मनोहर को लेकर राज्य सभा में पहुँचे। राजा ने सेठजी से पूछा— सेठजी ! आपका यह होनहार बालक क्या पढ़ता है ? सेठ जी ने कहा- राजा जी ! अभी इसने अध्ययन प्रारम्भ ही किया है । धनञ्जय नाममाला के केवल श्लोक ही इसने कंठस्थ किये हैं ।
राजा ने कहा- सेठजी ! इस ग्रन्थ का नाम मैंने पहले कभी नहीं सुना ! इसके रचयिता कौन हैं ?
सेठजी ने कहा- महाराज ! स्याद्वादविद्यापारगंत महाकवि धनञ्जय की कृपा का यह प्रसाद है जिन्हें पाकर आपकी यह नगरी धन्य हुई है।
राजा ने कहा- -ऐसे विद्वान् के आपने मुझे अभी तक दर्शन भी नहीं कराये। मुझे एक बार उनके दर्शन करना ही हैं ।
राजा और सेठजी के मध्य हो रहे वार्तालाप को कालिदास सुन रहे थे। उन्हें जैनियों से स्वाभाविक द्वेष था अतः बीच में ही बोल उठेमहाराज ! वैश्य महाजन भी संस्कृत विद्या में पारंगत हो सकते हैं ? कालिदास का द्वेष उबल पड़ा । परन्तु गुणज्ञ राजा पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा । राजा ने धनञ्जय जी को बुलवाया, वे पधार भी गये ।
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राज्य सभा में पहुँचते ही धनञ्जयजी ने आशीर्वादात्मक सुन्दर श्लोक सुनाया जिसे सुनकर राजा व सभाजन बहुत आनन्दित हुए । राजा ने उन्हें विशेष मान-सम्मान से बैठाया और आपस में कुशल क्षेम पूछा