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________________ श्री सरस्वती म्नांत्र : २६ द्वारा प्रतिपादित अहिंसा प्रधानधर्मरूपी समुद्र को निरन्तर बढ़ान वाला है ऐसी है सरस्वती देवी ! आज हम सबकी सक्षा करें । भावार्थ - -जो मां जिनवाणी स्यात्-अस्तिरूपी तोड़े, नाम्ति रूपी कंकण, अस्तिनास्ति रूपी धुंघरू और स्यात् अवक्तव्यरूपी कमरबंध को झंकार करती हुई अनादिकालसे विराजमान है तथा अनादि-निधन जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित अहिंसामयी प्रधान धर्मरूपी समुद्र का निरन्तर ज्ञानधारा के द्वारा बढ़ा रही है ऐसी माँ सरस्वती हमारी प्रतिदिन रक्षा करें। कंकेलिपल्लव विनिंदित पाणि युग्मे, पद्मासने दिवस पद्मसमान वक्त्रे । जैनेन्द्र वक्त्र भवदिव्य समस्त भाषे, वागीश्वरि प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ।।५।। लज्जित हुए हैं कर-कमल से कमलपत्ते भी सदा. कमल आसन पर विराजित मुख कमल सम है मुदा । जिनदेव के मुख जो निकसी सर्वभाषामयी कहे. वागीश्वरि रक्षा करो नित दिव्यमूर्ति प्राप्त है ।।५।। अर्थ-जिन्होंने अपने सुकोमल करों से अशोक वृक्ष के कोमल पत्तों को भी तिरस्कृत कर दिया है। जिनका आसन कमल का है, जिसका मुखमण्डल दिन में विकसित होने वाले कमल के समान अत्यन्त सुन्दर है और जो भगवान जिनेश्वर के मुखमण्डल से उत्पन्न हुई सर्वभाषामयी है, ऐसी माता सरस्वती देवी सदा हमारी रक्षा करें । भावार्थ--जिसने मुनिधर्म व श्रावक धर्म रूप अणुव्रतमहाव्रत कोमल करपल्लवों से अशोक वृक्ष के कोमल पत्तों को भी लज्जित कर दिया है, भेद विज्ञानरूपी कमलासन पर जो विराजित हैं तथा सप्तभंगरूपी तरंगों युत जिनका मुखमण्डल
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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