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२२ : पंचस्तोत्र ___ अन्वयार्थ--( कृतावकाशम् ) अवकाश को प्राप्त ( ज्ञानम् ) ज्ञान ( यथा) जिस तरह ( त्वयि ) आप में (विभाति ) शोभायमान होता है ( एवं तथा ) उस तरह ( हरिहरादिषु ) विष्णु, शङ्कर
आदि ( नायकेषु ) देवों में ( न 'विभाति') शोभायमान् नहीं होता, . .( नेज: } तेज (परमणिषु ) महा. मणियों में ( यथा) जैसे ( महत्वम् ) महत्व को ( याति ) प्राप्त होता है, (तु) निश्चय से ( एवं 'तथा') वैसे महत्व को (किरणाकुले अपि) किरणों से व्याप्त भी ( काचशकले) काँच के टुकड़े में ( न 'याति') नहीं प्राप्त होता ।।२०।।
भावार्थ-हे विभो ! लोक-अलोक को जानने वाला निर्मल ज्ञान जिस तरह आप में शोभा को प्राप्त होता है उस तरह ब्रह्मा, विष्णु, महादेव आदि देवों में नहीं होता। कि तेज की शोभा महामणि में ही होती है, न काँच के टुकड़े में भी ।।२०।। मन्ये वरं हरिहरादय एवं दृष्टा
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः
कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि ।। २१।। देखे भले अयि विभो ! पर देवता ही,
देखे जिन्हें हृदय आ तुझमें रमे ये। तेरे विलोकन किये फल क्या प्रभो ! जो,
कोई रमे न मन में पर जन्म में भी ।।२१।। टीका–नाथ ! अहमेवम्मन्ये हरिहरादय एव देवा । वरं दृष्टा समीचीनं विलोकित्ताः । कुतश्चेत्तेषु दृष्टेषु सत्सु हृदयं ममान्त:करणं । त्वयि भगवति विषये। तोषं प्रमोदं । एति प्राप्नोतीत्यर्थः । भो देव ! भवता श्रीतीर्थकरपरमदेवेन । वीक्षितेन किं भवति ? एतदेव भवति । येन कारणेनान्यः कश्चिद्देवः । भुवि पृथिव्यां । भवान्तरेऽपि परजन्मन्यपि । मनो न हरति अन्तःकरणं न विकलीकरोति ।।२१।।