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अकलंक स्तोत्र : २५७ किरणों से व्याप्त, सुरपति के वज्र से व्याप्त और गणेश, बुद्ध, अग्नि, यक्ष तथा शेषनाग भी व्याप्त नहीं है अत: तुम इस संसार को उस रूप मत देखो। यह संसार तो वास्तव में दिगम्बर वीतराग-सर्वज्ञ-हितोपदेशी जिनेन्द्रदेव की मुद्रा से व्याप्त है अतः इसे जिनेन्द्रमुद्रांकित देखो । त्रिकालदर्शी जिनदेव के ज्ञान में सर्व चराचर लोक दर्पणवत् स्पष्ट झलक रहा है, उनके ज्ञान के बाहर अणुमात्र भी नहीं है अत: तुम इस लोक को दिगम्बर जिनमुद्रा से व्याप्त देखो। मौञ्जीदण्डकमण्डलु प्रभृतयो नो लाञ्छनं ब्रह्मणो रुद्रस्यापि जटाकपालमुकुटं कौपीनखट्वाङ्गना । विष्णोश्चक्रगदादिशङ्खमतुलं बुद्धस्यरक्ताम्बरं नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्रमुद्राङ्कितम ।।१२।। ___अन्वयार्थ (मौञ्जीदण्डकमण्डलुप्रभृतयः) मूंज की बनी हुई रस्सी (कमर बन्ध) दण्ड कमण्डलु (जलपात्र) आदि { ब्रह्मणः ) ब्रह्मा के (लाञ्छनं ) चिह्न (नो) नहीं ( अस्ति) हैं । (जटाकपालमुकुटं) (जटाजूट-कपाल-मुकुट कौपीनखट्वाङ्गना) लँगोटी, खट्वाङ्गा/अस्त्रविशेष अंगना/स्त्री/पार्वती ( रुद्रस्य) रुद्र/महादेव का (लाञ्छनम्) चिह्न (नो) नहीं (अस्ति) है । ( अतुलं) उपमारहित ( चक्रगदादिशंखम् ) सुदर्शन चक्र, शंख और गदा आदि (विष्णोः ) विष्णु का (लाञ्छनम्) चिह्न (नो) नहीं (अस्ति) है (रक्ताम्बरम् ) रक्त वस्त्र धारण करना (बुद्धस्य) बुद्ध का (लाञ्छनम्) चिह्न (नो) नहीं (अस्ति) है । (वादिनः) हे वादियों (जैनेन्द्रमुद्राङ्कितम् ) श्रीजिनेन्द्रदेव की परम शान्त वीतराग मुद्रा से चिह्नित ( नग्नम्) दिगम्बरत्वम् ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश, बुद्ध का यथार्थ चिह्न है अतः (इदं जगत् ) इस जगत् को ( जैनेन्द्रमुद्राङ्कितम् ) जिनेन्द्र मुद्रा से व्याप्त ( पश्यत ) देखो।