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२४२ : पंचस्तोत्र
भैय्या ! सामने सरोवर में बहुत कमल हैं। आप उनमें अपने को छिपा लीजिए । शत्रु पीछे से मारने को आ रहे हैं। जल्दी कीजिये। मैं भी अपनी रक्षा का उपाय करता हूँ किन्तु आप शीघ्र कीजिये । आपके द्वारा जिनधर्म की बड़ी प्रभावना होगी। मुझे अपना जीवन दे देना भी पड़े तो कुछ परवाह न कीजिये । मेरे प्यारे भाई ! जीते रहकर पवित्र जिनशासन की भरपूर सेवा करें। अकलं की घर आई, अश्रुधारा बह चली। वे जिनशासन की रक्षा के लिये कमलों में छुप गये I
निकलंक भाई से विदा ले दौड़कर आगे की ओर रवाना हुए। शत्रुओं की तलवार से मारे गये। रत्नसंचयपुर के राजा हिमशीतल की रानी ने अष्टान्हिका पर्व में अष्टमी से रथयात्रोत्सव का आरम्भ करवाया । उसमें उसने बहुत-सा द्रव्य व्यय किया। यह बौद्ध भिक्षु संघ को सहन नहीं हुआ । उसने रथयात्रा रुकवा दी और शास्त्रार्थ की घोषणा की । महाराजा शुभतुंग ने अपनी महारानी से कहा – प्रिये ! जब तक कोई जैन विद्वान् बौद्धगुरु के साथ शास्त्रार्थ करके जिनधर्म का प्रभाव नहीं फैलावेगा तब तक तुम्हारा उत्सव होना कठिन है ।
रानी मदनसुन्दरी जिनभक्ति में तल्लीन हो गई। उसकी भक्ति के प्रभाव से पद्मावती का आसन कम्पित हुआ । आधी रात के समय वह आयी और महारानी से बोली--- देवी, जबकि तुम्हारे हृदय में भगवान् के प्रति भक्ति हैं अतः चिन्ता न करो, तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होंगे 1 सुनो. कल प्रातः काल ही अकलंकदेव इधर पधारेंगे। वे जैनधर्म के बड़े विद्वान् हैं । वे संघश्री के दर्प को चूर्ण कर जिनधर्म की प्रभावना करेंगे। तुम्हारा रथोत्सव निर्विघ्न पूर्ण होगा। रानी अति प्रसन्न हुई, पुनः जिनभक्ति में लीन हो गई ।
प्रातः काल अकलंकदेव विहार करते हुए रत्नसंचयपुर पधारे। रानी मुनिश्री के दर्शनार्थ गई। अष्टद्रव्य से पूजा कर गुरु महाराज की वन्दना की । कुशल वार्ता के पश्चात् रानी ने संघश्री का सब हाल गुरु महाराज को सुनाया । अकलंकदेव ने रानी को सन्तुष्ट कर संघ श्री से