________________
एकीभाव स्तोत्र : २२९ मिथ्यामलको ( अपनुदन् ) दूर करने वाला (ते ) आपका ( यः) जो ( वागम्भोधिः) वचनरूपी समुद्र है सो ( अखिलं भुवनं ) समस्त संसार को ( पर्येति ) घेरे हुए है–समस्त संसार में व्याप्त हैं।"
भावार्थ-हे नाथ ! सप्तभंगरूपतरंगों से अथवा अनेकान्त के माहात्म्य से शरीरादिक बाह्य पदार्थों में आत्मत्वरूपी जीव के विपरीताभिनिवेश को दूर करने वाले आपके वचन समुद्र का जो भव्य प्राणी निरन्तर अभ्यास-मनन एवं परिशीलन करता है अर्थात् आगमोक्त विधि से अभ्यास कर चित्त की निश्चलता रूप परम समाधि को प्राप्त करता है वह शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है और अनन्त काल तक यहाँ सुख में मग्न रहता है । यह सब आपके बचन समुद्रका ही माहात्म्य है ।। १८ ।। आहार्येभ्यः स्पृहपरित परं यः १८ मासादहछ.,
शस्त्रग्राही भवति सततं वैरिणी यश्च शक्यः । सर्वांगेषु त्वमसि शुभगस्त्वं न शक्यः परेषां,
तत्कि भूषावसनकुसुमैः किञ्च शस्त्रैरुदस्त्रैः ।।९।। जो कुदेव छवि हीन वसन भूषण अभिलाखें । बैरी सों भयभीत होय सो आयुध राखें ।। तुम सुन्दर सर्वंग शत्रु समरथ नहिं कोई । भूषण वसन गदादि ग्रहण काहे को होहि ।। १९ ।।
इस श्लोक में 'आवृत्तिमः विधा. अचलन और अमृतसंनया य पर रिना
और द्वयर्थक हैं—दो अर्थ बाल्ने हैं—टुमलिये इस श्लोक के गैर के दा न का अन्त्रयाई इस प्रकार क्रिया जा सकता है-चंतसा एन अचलर मनपा पर्वत मन्दर गिरिक द्वारा (तस्य) उम वचनमापी यमुद्र का । अनिम्। मन्यन (व्यातन्वन्नः। करनवाले (विलधाः। देवगण (सपदि। शीघ्र हो । अमनयवया । अमृत के संबन से लुचिर ; चिरकाल नक (तृप्नुर्वान्नी मन्दा हो जाने ? भावार्थ-कवि सम्प्रदाय में ऐसी प्रसिद्धि है कि एक द्वार देवं ने मिलकर पतंक के द्वारा समुद्र का मंथन किया था 'लपमं उसमे अन्य वाम्म अं के माय आपन - निकाला गया था, देवगण उसो अमृत को पीकर अमर हा हैं।