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२२० : पंच स्तोत्र तबनमस्कारास्त्वनमस्कारास्तेषां चक्रं वासव इन्द्र श्री लक्ष्मीः तम्या: प्रभुत्वमैश्वर्यम् ।। १२ ।। ___ अन्वयार्थ-वे जिनेन्द्र ! जब कि ( मरण समये) मृत्य के समय में (जीवकेन) जीवन्धरकुमारके द्वाग (क्षत्रियवंश चूड़ामणि सत्यंधर राजा के पुत्र जीवंधर कुमार के द्वारा) (उपदिष्टैः ) बताये गये ( तव ) आपके ( नुतिपदैः ) नमस्कार मंत्र के पदों के स्मरण एवं चिन्तन से ( पापाचारी ) पापरूप प्रवृत्ति करने वाला ( सारमेयः अपि कुत्ता भी (नं ! देव..-स्वर्गलोक सम्बन्धी (सौख्यम् ) सुखको ( प्रापत्) प्राप्त हुआ है तब ( अमलैः ) निर्मल ( जाप्यैः ) जपने योग्य माला को ( मणिभिः) पनकाओं के द्वारा ( त्वन्नमकारचक्रम् ) आपके नमस्कार मंत्र को ( जल्पन् ) जपता हुआ मनुष्य ( यत् ) जो ( वासवश्रीप्रभुत्वम् ) इन्द्रकी विभूति के अधिपतित्व को–स्वामी पने को ( लभते ) प्राप्त होता है । इस विषय में (क: सन्देहः) क्या सन्देह है ? अर्थात् इसमें कोई सन्देह नहीं है।
भावार्थ-जबकि एक पापी कुत्ता भी मृत्यु के समय न कि जीवनभर जीवन्धर कुमार द्वारा बताए हुए मंत्राऽक्षरों के ध्यान से यक्षोंका स्वामी यक्षेन्द्र हो सकता है तब निर्मल मणियों के द्वारा
आपके नमस्कारमंत्र का ध्यान करने वाला भद्र मानव यदि इन्द्रकी विभूति को प्राप्त कर ले तो इसमें क्या आश्चर्य है अर्थात् कुछ नहीं ।। १२ ।।
+ इसकी संक्षिप्त कथा इस प्रकार है.–!क बार एक कने ने ब्राह्मण को हवन को सामयो को दृषित कर दिया था. जिससे उन्होने कुपित हो कर उस कने को मार डाला। जब वह शस्त्र-मान से सिसकता और छटपटा रहा था और अपने जीवन को अग्निम साँमें ले रहा 'य' । इतने में क्षत्रिय वंश कुलतिलक जीबंधनकुमार ने उस को को तडपना हुअ देख कर णमो अरहंताण' त्या द पंचपरमेष्टी वानक, मंत्र पढ़कर सनाया. जिसमें उसके पगिंगरमो मे परम शांति हुई और वह कना पर कर इस मंत्र के प्रभाव पर्ने माहात्म्य से यक्षोंका अधिपनि यक्षेन्द्र हुः ।