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२०८ : पंच स्तोत्र होकर ( स्तोत्रमंत्र) स्तवनरूप मंत्रों से ( भवन्तम् ) आपको (अयेत् ) पूजता है-स्तुति करता है । (तस्य ) उसके ( सुचिरम् ) चिरकालसे (अभ्यस्तात अपि) परिचित भी ( देह-बल्मीकमध्यात्) शरीररूपी वामीके मध्यसे-बीचसे ( विविधविषमव्याधयः) अनेक प्रकारके कठिन रोगरूपी (काद्रवेयाः) साँप (निष्कास्यन्ते) बाहर निकाल दिये जाते हैं।
भावार्थ-जिस प्रकार समीचीन मंत्रों की सामर्थ्यसे वापीके मध्य भागसे साँप बाहर निकाल दिये जाते हैं ठीक उसी प्रकार जिनेन्द्र के स्तवनरूप मंत्रोंसे, स्तवन-पूजन करने वाले भव्य पुरुषोंकी विषम विषयरूप व्याधियाँ भी दूर कर दी जाती हैं। अर्थात् जो मनुष्य भक्ति पूर्वक-श्रद्धासे सम्पन्न होकर एकाग्रचित्त : से जिनेन्द्र भगवान् का पवित्र स्तवन करता है उसके पुरातन विषम रोग भी दूर हो जाते हैं और सरकार हरीर मियोग हो जाता है ।। ३ ।। प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यात्
पृथ्वीचक्रं कनकमयतां देव निन्येत्वयेदम् । ध्यानद्वारं ममरुचिकरं स्वान्तगेहं प्रविष्ट
स्तकिंचित्रं जिनवपुरिदं यत्सुवर्णी करोषि ।। ४ ।। दिवितै आवनहार भये भविभाग उदयबल, पहले ही सुरआय कनकमय कीय महोतल । मनगृहध्यानदुवार आय निवसो जगनामी, जो सुवरन तन करो कौन यह अचरज स्वामी ।।४।।
टीका-भो देव-भव्यपुण्यात् त्रिदिव भुवनात् स्वर्गलोकात् इहलोके एष्यता समागमिष्यता त्वया परमेश्वरेण प्रागेवपूर्वमेव इदं पृथ्वीचक्रं भूवलयं रत्नवृष्ट्यादिभिः कनकमयतां सुवर्णमयतां निन्ये नीतं । त्रिदिवः स्वर्गस्तस्य भवनं गृह विमानं वा तस्मात् । भव्यानां पुण्यं भव्यपुण्यं तस्मात् एष्यतीति एष्यंस्तेन एण्यता । पृथव्याश्चक्रं पृथ्वी