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________________ एकीभाव स्तोत्र : २०३ ही यह पृथ्वी कनकमयता को प्राप्त करा दी गई थी। हे जिनेन्द्र ! ध्यानरूपी द्वार से मेरे मनरूपी मन्दिर में प्रविष्ट हुए आप कुष्ट रोग से पीड़ित मेरे इस शरीर को आप सुवर्णमय कर रहे हो इसमें क्या आश्चर्य है । अथवा हे जिन ! जो कोई आपके दर्शन करता है, वचनरूपी अमृत का भक्तिरूपी पात्र से पान करता है तथा कर्मरूपी मन से आप जैसे असाधारण आनन्द के धाम दुर्वार काम के मदहारी व प्रसाद की अद्वितीय भूमिरूप पुरुष में ध्यान द्वारा प्रवेश करता है, उसे क्रूराकार रोग और कंटक कैसे सता सकते हैं ? जिनभक्ति के प्रसाद से रातभर में ही उनका गलित कुष्ठग्रस्त शरीर स्वर्णवत् चमकने लगा । प्रात: राजा, राजश्रेष्ठी और जिनधर्मद्वेषी सभी आचार्यश्री के दर्शनार्थ चल दिये । उसी जंगल में आ पहुँचे जहाँ मुनिश्री ध्यान में लीन थे । उनका तेज दूर तक फैल रहा था । चमकती देहकान्ति को देखते ही राजश्रेष्ठी आनन्दविभोर हो गया । राजा ने पूछा-- श्रेष्ठी, क्या ये ही आपके गुरु हैं ? सेठजी ने कहा-जी ! हाँ । राजा उनके पावन चरणों में नतमस्तक हुआ और द्वेषियों की ओर कोप-भरी दृष्टि से देखने लगा। सबके सब थर-थर काँपने लगे। मुनिश्री ने कहाराजन् ! यह सत्य है कि मेरे शरीर में कुष्ट था, अभी भी मेरी कनिष्ठा अंगुली में इसका प्रभाव शेष है। किन्तु "जैनधर्म के सभी साधु कोड़ी होते हैं" इस आक्षेप को दूर कर जिनधर्म की प्रभावना के लिए मैंने भक्ति के प्रसाद से यह रोग एक रात में दूर कर दिया है । अतः इन बेचारों की कोई गलती नहीं । राजा मुनिश्री के वचनों को सुन दर्शन से बहुत प्रभावित हुआ । राजा ने व जिनधर्म द्वेषियों ने आचार्यश्री से क्षमा प्रार्थना की और जिनधर्म को धारण कर सम्यादर्शन प्राप्त किया।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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