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________________ वह प्रयोजन के बिना नहीं होता। हमारा प्रयोजन कर्मों से भिन्न समझकर अपने स्वभाव में जम जाना है। यह तभी सम्भव है, जब निज स्वभाव का आश्रय कर अपने स्वरूप में तन्मयता होगी। इसके सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है। सुहपरिणामहि धम्मु वढ असुहई होइ अहम्म। दोहिवि एहि विवज्जियउ पावइ जीउ ण जम्मु ॥73॥ शब्दार्थ-सुहपरिणामहिं-शुभ परिणाम से; धम्मु-धर्म (होता है); वढ-मूर्ख; असुहइं-अशुभ (भाव से); होइ-होता है; अहम्म-अधर्म; दोहिवि-दोनों को ही; एहिं-यहीं; विवज्जियउ-छोड़कर; पावइ-पाता है; जीउ-जीव; ण जम्मु-जन्म नहीं होता। ___अर्थ-हे मूर्ख! शुभ परिणामों से धर्म होता है तथा अशुभ से अधर्म होता है; किन्तु इन दोनों को छोड़ने पर जीव पुनर्जन्म नहीं पाता है। भावार्थ-यह दोहा कुछ परिवर्तन के साथ ‘परमात्मप्रकाश' (अ. 2, दो. 71) में मिलता है, जिसमें कहा गया है-“दान-पूजादि शुभ परिणामों से पुण्य रूप व्यवहार धर्म कहा जाता है और विषय-कषायादि अशुभ परिणामों से पाप होता है। किन्तु इन दोनों से रहित मिथ्यात्व, रागादि रहित शुद्ध परिणाम से पुरुष कर्म को नहीं बाँधता है।" ट्रीकाकार के अनुसार-“जैसे स्फटिकमणि शुद्ध उज्ज्वल है, उसके जो काला डंक लगावें, तो काला मालूम होता है, और पीला डंक लगावें तो पीला भासता है, और यदि कुछ भी न लगावें तो शुद्ध स्फटिक ही है, उसी तरह यह आत्मा क्रम से अशुभ, शुभ, शुद्ध इन परिणामों से परिणत होता है। उनमें से मिथ्यात्व और विषय-कषायादि अशुभ के अवलम्बन (सहायता) से तो पाप को ही बाँधता है। उसके फल से नरक-निगोदादि के दुःखों को भोगता है और अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पाँच परमेष्ठियों के गुणस्मरण और दानपूजादि शुभ क्रियाओं से संसार की स्थिति का छेदने वाला जो तीर्थंकर नामकर्म उसको आदि ले विशिष्ट गुणरूप पुण्यप्रकृतियों को अवांछीक वृत्ति से बाँधता है। तथा केवल शुद्धात्मा के अवलम्बनरूप शुद्धोपयोग से उसी भव में केवलज्ञानादि अनन्तगुणरूप मोक्ष को पाता है। इन तीन प्रकार के उपयोगों में से सर्वथा उपादेय तो शुद्धोपयोग ही है; अन्य नहीं है। और शुभ अशुभ इन दोनों में से अशुभ तो सब प्रकार से निषिद्ध है, नरक निगोद का कारण है, किसी तरह उपादेय नहीं है-हेय है, तथा शुभोपयोग प्रथम 1. अ सुहपरिणामइ; क, द, स सुहपरिणामहि; ब सुहपरिणामइं; 2. अ, ब दोहि मि; क दोहं मि; द, स दोहिं मि; 3. अ, ब एह; क, द, स एहं; 4. अ विविज्जियइ; क विवज्जियए; व विवज्जियइ; द, स विवज्जियउ। पाहुडदोहा : 97
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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