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________________ होती, फिर भी ये कदाचित् दैवयोग से तृप्त हो लें, किन्तु यह जीव चिरकाल पर्यन्त नाना प्रकार के काम-भोगादिक भोगने पर भी कभी तृप्ति को प्राप्त नहीं होता। (ज्ञानार्णव, श्लोक 25, 28) अप्पा मेल्लिवि' जगतिलउ मूढ म झायहि अण्णु। जई मरगउ परियाणियउ तहु किं कच्चहु' गण्णु ॥72॥ शब्दार्थ-अप्पा-आत्मा (को); मेल्लिवि-छोड़कर; जगतिलउजगतिलक; मूढ-हे मूढ! म झायहि-मत ध्याओ; अण्णु-अन्य (किसी को) जइ-यदि; मरगउ-मरकत मणिः परियाणियउ-पहचान ली गई तह-तो; किं-क्या; कच्चह-काँच की; गण्णु-गिनती (की जाती है)। अर्थ-हे मूढ! जग में उत्तम आत्मा (निज शुद्धात्मा) को छोड़कर अन्य किसी का ध्यान मत कर। यदि मरकत मणि पहचान ली गई है, तो काँच को गिनने से.. क्या ? भावार्थ-उक्त दोहा किंचित् परिवर्तन के साथ 'परमात्मप्रकाश' 2, 78 में मिलता है। उसमें कहा गया है केवलज्ञानादि अनन्तगुणवाली आत्मा को छोड़कर अन्य वस्तु ज्ञानियों को नहीं रुचती। जिसने मरकतमणि पहचान ली है, उसे काँच से क्या प्रयोजन है? इसी प्रकार जिस का चित्त आत्मा में लग गया है, उसके अन्य पदार्थों की वांछा नहीं रहती। जैसे नमक के प्रत्येक कण में खारापन है, मिश्री के प्रत्येक भाग में मिठास है, जल के सभी अवयवों में द्रवता है, अग्नि में सर्वांग उष्णपना है, चन्द्रमा सर्वांग में शीतल है, सूर्य में सभी अंगों में ताप है, स्फटिक में सर्वांग निर्मलता है, गोरस में सर्वांग चिक्कणता है, बालू में सर्वांग कठोरता है, लोहे में सर्वांग भारीपन है, रुई में सर्वांग हल्कापन है, इत्र में सर्वांग सुगन्ध है, गुलाब के पुष्प में सर्वांग सुवास है, आकाश में सर्वांग निर्मलता है, वैसे ही आत्मा सर्वांग में सुख से भरपूर है। सुख आत्मा का अविनाशी गुण है। सच्चा सुख स्वाधीन है, सहज है, निराकुल है, सम भाव मय आत्म-स्वभाव है। आत्मा के स्वभाव का एक समय मात्र भी अनुभव सहज सुख का ज्ञान कराता है। आत्मा का यह सहज सुख आत्म-ध्यान से प्राप्त होता है, इसलिए निज शुद्धात्मा के सिवाय अन्य किसी का ध्यान नहीं करना चाहिए। वास्तव में ध्यान तो परमात्म स्वरूप निज शुद्धात्मा का होना धर्मध्यान कहा जाता है। क्योंकि ध्येय सभी कालों में एक होता है। ध्येय को लक्ष्य कर जो ध्यान किया जाता है, 1. अ, द मिल्लिवि; क, ब, स मेल्लिवि; 2. अ, ब, स जे क जें; द जिं; 3. अ तहो वि; क, ब तहो किंद, स तहु किं; 4. अ कच्चहो; ब कच्चउ; क, द, स कच्चहु। 96 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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