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________________ सुख का कारण अन्य नहीं है। क्योंकि आनन्द का सम्बन्ध ज्ञान के साथ है; धन के साथ नहीं है। धन आकुलता का कारण है और ज्ञान निराकुलता का। आत्मा का हित निराकुल सुख से है; धन, वैभव आदि से तो सरंक्षण की चिन्ता, हानि का भय, क्लेश आदि का अनुभव होता रहता है। अतः ज्ञान-धन ही सार है, शेष सभी असार हैं। अप्पा मेल्लिवि जगतिलउ जे परदवि रमंति। अण्णु कि मिच्छादिट्ठियह मत्थई सिंगई होंति ॥71॥ . शब्दार्थ-अप्पा-आत्मा (को); मेल्लिवि-छोड़कर; जगतिलउजगतिलक; जे-जो; परदब्वि–पर द्रव्य में; रंमति-रमण करते हैं; अण्णु-अन्य; कि-क्या; मिच्छादिट्ठियह-मिथ्यादृष्टि के; मत्थई-मस्तक (पर); सिंगइं-सींग; होंति-होते हैं। अर्थ-जो जग में श्रेष्ठ (निज) आत्म द्रव्य को छोड़कर परद्रव्य में रमण करते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं। अन्य क्या मिथ्यादृष्टियों (की पहचान के लिए) के माथे पर सींग होते हैं? भावार्य-वास्तव में इन्द्रियों के विषयों के अनुभव में आकुलता होने के कारण प्रत्येक प्राणी को दुःख होता है, किन्तु शुद्ध आत्मा का अनुभव करने से निराकुल सुख होता है। अतः इन्द्रियों से मिलने वाला सुख वास्तविक नहीं है, किन्तु तृष्णा रूपी अग्नि को शान्त करने के लिए क्षणिक उपाय है। सुख तो आत्मा के स्वभाव में रहने से प्राप्त होता है। जो मूढ मनुष्य पर पदार्थों में अनुरक्त हैं, वे चाहे नगर में हों, गाँव में हों, वन में हों, पर्वत के शिखर पर हों, समुद्र के तट पर हों, मठ, गुफा, चैत्यालय, सभा, रथ, महल, किले में हों, स्वर्ग में हों, भूमि, मार्ग, आकाश में हों, लता-मण्डप, तम्बू, दरबार आदि किसी भी स्थान पर हों, उनको रंचमात्र निराकुल सुख प्राप्त नहीं हो सकता है। विषयों में आसक्त रहना-यह मिथ्यादृष्टि की पहचान है। क्योंकि विषय-भोगों की अभिलाषा मिथ्यादृष्टि के विशेष रूप से होती है। क्योंकि वह ऐसा समझता है कि पर द्रव्यों से सुख-शान्ति की प्राप्ति हो सकती है। आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं . हे आत्मन्! ऐसा जान कि विषयों के सुख सेवन करते समय सुन्दर लगते हैं, लेकिन जब उनका फल मिलता है, तब वह विष के समान कड़वा होता है। इस जगत् में समुद्र कभी भी नदियों से तृप्त नहीं होता, अग्नि ईंधन से कभी तृप्त नहीं 1. अ, द, व मिल्लिवि; क, स मेल्लेवि; 2. अ जे परदब्ब रमंति; क, ब, स जो परदव्य रमंति; द जो परदवि रमंति। पाहुडदोहा : 95
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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