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अवस्था में उपादेय है, और परम अवस्था में उपादेय नहीं है, हेय है।" मोक्षमार्गी या आत्महितार्थी की श्रद्धा तो शुद्ध, वीतराग एवं सर्वथा उपादेय शुद्धात्म स्वरूप की ही होती है।
सई मिलिया सई विहडिया जोइय कम्म णिभंति। तरलसहावहिं पंथियहि अण्णु कि गाम वसंति ॥74॥
शब्दार्थ-सइं-स्वयं; मिलिया-मिले; सइं-स्वयं; विहडिया-बिछुड़े जोइय-हे जोगी; कम्म-कर्म; भिंति-निर्धान्त; तरलसहावहिं-चंचल स्वभाव (वाला); पंथियहिं-पथिकों से; अण्णु-दूसरा; कि-क्या; गाम-गाँव;' वसंति-वसते हैं? ____ अर्थ-हे योगी! कर्म स्वयं मिलते हैं और स्वयं बिछुड़ते हैं, इसमें कोई भ्रान्ति नहीं है (अर्थात् कर्म अपनी योग्यता से मिलते-बिछुड़ते हैं। उनमें ऐसी शक्ति है)। चंचल स्वभाव के राहगीरों से क्या अन्य (नया) गाँव बसता है?
भावार्थ-यदि कोई व्यक्ति मैदान से लगे हुए जंगल में शरीर में तेल की मालिश कर हथियार लेकर केला और बाँस के पेड़ों को छेद रहा हो, तो वह कुछ ही समय बाद धूल से लथपथ हो जाएगा। उसे देखने वाला कोई भी यह कह सकता है कि वहाँ धूल बहुत है, इसलिए शरीर से चिपक गई है। दूसरा, दर्शक यह कहता है-नहीं। धूल तो इसलिए लिपटी है कि इसने परिश्रम बहुत किया है। तीसरा कहता है-यदि वह हथियार न चलाता, तो धूल नहीं उड़ती और न शरीर में चिपकती। चौथा यह कहता है कि ये तीनों बातें ठीक नहीं हैं। धूल चिपटने का कारण राग की चिकनाई है। पेड़ों का घात करना, भूमि पर आघात करना, फल-फूलों को गिराना आदि धूल के लिपटने के कारण नहीं हैं। वास्तव में न्यायपूर्वक विचार किया जाए तो शरीर पर तेल लगा होने से वह धूल चिपकने में कारण है, इसी प्रकार मिथ्या भाव वाले जीव के अपनी उपयोग-भूमि में कर्म-धूल से भरे हुए राग-द्वेष-मोह भाव के निमित्त से निरन्तर आठ कर्म बँधते रहते हैं। इस लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ पर अनन्त कार्मण-वर्गणाएँ न हों। कार्मण-वर्गणाएँ ही कर्म रूप परिणमन करती हैं। लोक में चारों ओर कार्मण-वर्गणाएँ भरी हुई हैं। इनके तीन रूप हैं-(1) जीव के साथ कर्म रूप से बँधी हुई, (2) कर्म का स्वभाव लिए हुए जीव के क्षेत्र में, प्रदेश में संचित तद् रूप, और (3) अनुभय रूप अर्थात् जो न तो कर्म बनी हैं और न स्वाभाविक रूप से संचित हैं, किन्तु कर्म बनने की प्रकृति रखती हैं।
कार्मण-वर्गणा पुद्गल-परमाणुओं की रचना है। जिसमें पूरन और गलन पाया
1-2. अ सइ क, द, ब, स सई; 3. अ जाइय; क, द, ब, स जोइय; 4. अ, क, स तरलसहाव वि; द तरलि सहाव वि; ब तरल सहाव बि; 5. अ पंथियह; क, द, स पंथियहिं; व पंथयहिं।
98 : पाहुडदोहा