________________
जाता है, उसे पुद्गल कहते हैं। समान गुण वाले सम संख्या तक के वर्गों के समूह को या समान गुण वाले परमाणु पिण्ड को वर्गणा कहते हैं। वे स्वयं अपनी योग्यता से परस्पर मिलकर बँधते हैं, बँधकर बिछुड़ते हैं। लेकिन उनका मिलना और बिछुड़ना एक समय का होता है। अतः कर्म-बन्ध या पुद्गलबन्ध के लिए दो समय तक ठहरने की स्थिति आवश्यक है। एक समय का बन्ध बन्ध नहीं कहा जाता है।
अण्णु जि जीउ म चिंति तुहुँ' जइ वीहउ दुक्खस्स। तिलतुसमित्तु' वि सल्लडा वेयण करइ अवस्स ॥75॥
शब्दार्थ-अण्णु-अन्य; जि-ही; जीउ-जीव; म-मत; चिंति-चिन्ता (करो); तुहुँ-तुम; जइ-यदि; वीहउ-भयभीत (हो); दुक्खस्स-दुःखों से; तिलतुस मित्तु वि-तिल, तुष मात्र भी; सल्लडा-शल्य; वेयण-वेदना; करइ-करती है; अवस्स-अवश्य। . ___अर्थ-यदि तुम दुःख से भयभीत हो, तो अन्य (जड़ कर्म, नोकम) को जीव मत मानो। तिल व तुष मात्र भी शल्य (चुभन, खटक) वेदना अवश्य देती है।
भावार्थ-जो शाश्वत नित्य सदा काल जीता है, उसे जीव कहते हैं। जीव चैतन्य है। कर्म पुद्गल या अचेतन है। शरीर साक्षात् जड़ पदार्थ है। यह समझ तो प्रत्येक मनुष्य को हो सकती है कि मैं चेतन हूँ, इसलिए राग-द्वेष-मोह रूप जड़ कर्म तथा शरीरादि से भिन्न हूँ। जिनको अपनी भिन्नता भासित नहीं होती, वे कभी कर्म के साथ और कभी पर पदार्थों के साथ अपनेपन की बुद्धि कर वेदन करते हैं तथा दुःखी होते हैं। कविवर बनारसीदास के शब्दों में
सतगुरु कहे भव्य जीवन सो, तोरहु तुरत मोह की जेल। समकित रूप गहो अपनो गुन, करहु शुद्ध अनुभव को खेल ॥ पुद्गल पिण्ड भाव रागादि, इन सो नहीं तिहारो मेल। ये जड़ प्रगट गुपत तुम चेतन, जैसे भिन्न तोय अरु तेल ॥
___ -समयसारनाटक, जीवद्वार 12 ... अर्थात्-भव्य जीवों को सद्गुरु उपदेश करते हैं कि शीघ्र ही मोह का बन्धन तोड़ दो, अपना सम्यक्त्व गुण ग्रहण करो और शुद्ध अनुभव में मस्त हो जाओ। पुद्गल द्रव्य और रागादिक भावों से तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। ये स्पष्ट ही अचेतन हैं और तुम अरूपी चैतन्य हो। तुम्हारी स्थिति पानी में तेल की भाँति उनसे भिन्न है।
1. अवि; क, द, स जि; ब म; 2. अ तुहु; क, द, ब, स तुहूं; 3. अ, स बीयउ; क, ब भीयउ; द वीहउ; 4. अ तिल्लतुस... ब तिलतुस्स मित्त वि; क, द, स तिलतुस मित्तु वि।
पाहुडदोहा : 99