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________________ आत्म-स्थिरता से विचलित होकर उपयोग अन्य विषय पर जाता है, तो चित्त में पश्चात्ताप करता है । जो तत्त्वज्ञान के अभ्यास से आत्मध्यान की स्थिरता प्राप्त कर लेता है, वह अपने स्वभाव में ऐसा मगन हो जाता है कि कुछ कहा हुआ भी मानों नहीं कहता है, चलता हुआ भी नहीं चलता है, देखता हुआ भी नहीं देखता है अर्थात् वह आत्मानन्द का रस लेने में मग्न हो जाता है । (इष्टोपदेश, श्लोक 41 ) अप्पा- दंसणु' केवलउ' अण्णु सयलु' ववहारु' । एक्कु सो जोयइ झाइयई' जो तइलोयह' सारु ॥69॥ शब्दार्थ-अप्पादंसणु-आत्मदर्शन; केवलउ - केवल; अण्णु-अन्य; सयलु–सभी; ववहारु–व्यवहार ( है ); एक्कु - एक ( को ); सो - वह ; जोयइ - योगी; झाइयइ - ध्याता है; जो; तइलोयहं - तीनों लोक का; सारु - सार (है) । अर्थ - केवल आत्मदर्शन ही वास्तविक परमार्थ (आत्मा पदार्थ) है, अन्य (आत्मध्यान आदि) सभी व्यवहार ( सद्व्यवहार) है। तीन लोक के सारभूत इस एक पदार्थ को ही योगी जन ध्याते हैं। भावार्थ - आचार्य पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं- आत्मध्यान के अतिरिक्त अन्य सब घोर संसार का मूल है। ध्यान ध्येय आदि ( सविकल्प ) तप कल्पना मात्र सुन्दर है - ऐसा जानकर बुद्धिमान पुरुष सहज परमानन्द रूपी अमृत के पुर में मग्न होकर एक सहज परमात्मा का आश्रय करते हैं । (नियमसारकलश, 123 ) मुनिश्री योगीन्दुदेव का कथन है कि आत्मा का वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान के सिवाय अन्य स्वभाव नहीं है । इसलिए हे योगी ! आत्मा को केवलज्ञान स्वभाव (मात्र ज्ञान) जानकर पर वस्तु से प्रीति नहीं जोड़नी चाहिए । ( परमात्मप्रकाश 2, 155 ) साधक सहजानन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करता है। परमात्मा नित्य, निरंजन, परमानन्दमय, शान्त, शिव स्वरूप है। मुनि रामसिंह यहाँ पर आत्मानुभव का महत्त्व बतलाते हुए कहते हैं कि उसके बिना वास्तव में धर्म प्रकाशित नहीं होता। आत्मानुभव ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का नियम से कारण है। आत्मा की अनुभूति करने वाले को दर्शनमोह सम्बन्धी कर्म का बन्ध नहीं होता । क्योंकि इन्द्रियों को अपने विषयों से रोककर आत्मध्यान का अभ्यास करने वाले निर्विकल्प ध्याता को आत्मा स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होता है, अनुभव में आता है। 1. अ, द दंसण; क, ब, स दंसणु; ब अप्पाकेवलदंसणु वि 2. अ, क, स केवलउ; क केवल ; 3. अ, क, ब, स सयलु; द सव्वु; 4. अ विवहारु; क, द, ब, स ववहारु; 5. अ झाइयउ; क, द, स झाइयइ; 6. अ तइलोयह; क, द, ब, स तइलोयहं । पाहुदोहा : 93
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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