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________________ की बाधाओं से, घट-बढ़ से और विषयों से रहित, अतिशय, निर्द्वन्द्व, अनुपम, विशाल होता है। उसके उत्पन्न होने में किसी अन्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं होती, वह शाश्वत, सभी कालों में बना रहने वाला अनन्त, अपार, अप्रमाण, उत्कृष्ट सुख होता है जो सिद्धों को ही उपलब्ध होता है। सिद्ध सदा काल ज्ञान, आनन्द में अचल रहते हैं। उनका संसार से कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि वे सभी प्रकार के कर्मों से रहित संसारातीत हैं। संसार से सम्बन्ध तो इसीलिए था कि विभाव भावों से सम्बन्ध था। सिद्ध अवस्था एक बार प्राप्त हो जाने पर किसी से कोई सम्बन्ध रिश्ता नहीं रहता है। अप्पा मेल्लिव गुणणिलउ अण्णु जि झायहि झाणु। वढ अण्णाणविमीसियहं कहं तहं केवलणाणु ॥8॥ शब्दार्थ-अप्पा-आत्मा (को); मेल्लिवि-छोड़कर; गुणणिलउ-गुणों के निवास; अण्णु-अन्य (को); जि-ही; झायहि-ध्याता है; झाणु-ध्यान; वढ-मूढ; अण्णाणविमीसियह-अज्ञान से विमिश्रित (लिप्त) के; कह-कैसे; तहं-उसके; केवलणाणु-केवलज्ञान (हो); अर्थ-अनन्त गुणों के भण्डार आत्मा को छोड़कर जो अन्य का ध्यान करता है; हे मूर्ख! वह अज्ञान से लिप्त (मिला हुआ) है, उस को केवलज्ञान कैसे हो सकता भावार्थ-ध्यान किसका करना योग्य है? यह समझाते हुए कहते हैं कि चलायमान चित्त को रोककर अनन्त गुणवाले आत्मदेव का ध्यान करना चाहिए। मुनिश्री योगीन्दुदेव का कथन है कि आत्मा का जिस रूप में ध्यान करते हैं, उसी रूप परिणमन होता है। एक दृष्टान्त से स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार स्फटिक मणि के नीचे जैसा डंक दिया जाता है, वह वैसा ही रंग-रूप भासित होता है। इसी प्रकार जीव जिस उपयोग रूप परिणमन करता है, वैसा ही स्वरूप भासने लगता है। (परमात्मप्रकाश, 2, 173) जैसे शरीर में रोग उत्पन्न होने पर कुशल वैद्य रोगी पुरुष की चिकित्सा कर उसको नीरोग कर देता है, उसी प्रकार कषाय रूपी रोग को दूर करने के लिए आत्मध्यान प्रवीण वैद्य के समान है। ध्यान करने वाला सम्पूर्ण विश्व को इन्द्रजाल के तमाशे की भाँति देखता है तथा आत्मानुभव के लिए पुरुषार्थ करता है। यदि 1. अ, क, स मेल्लेवि; ब मेल्लिवि; द मिल्लिवि। 92 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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