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शरीर को आप जानना, इन्द्रिय सुख को सुख समझना और शुद्धात्मा तथा अतीन्द्रिय सुख पर श्रद्धा न होना ही मिथ्यादर्शन या मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व सहित जो जानना होता है, वह मिथ्याज्ञान है। परन्तु सम्यक् आत्म-श्रद्धापूर्वक जो जानना है, वह सम्यग्ज्ञान है। मिथ्यादृष्टि सभी जगह दुःखी रहता है, क्योंकि वह तृष्णा की दाह में सदा जलता रहता है। उसे स्व-पर का श्रद्धान नहीं होता; लेकिन जिसे अतीन्द्रिय सुख का भान हो जाता है, वह सभी प्रकार की विपत्तियों तथा कष्टों में भी सुखी रहता है, आनन्दित होता है।
जसु मणि णिवसइ परमपउ सयलई चिंत चवेवि। सो पर पावइ परमगइ अट्ठई कम्म हणेवि ॥67॥
शब्दार्थ-जसु-जिसका; मणि-मन; णिवसइ-रहता है; परमपउ-परम पद (में); सयलई-सभी; चिंत-चिंताएँ; चवेवि-छोड़कर; सो-वह; पर-परा, श्रेष्ठ; पावइ-पाता है; परमगइ-परम गति; अट्ठइं-आठों; कम्म-कर्मों (को); हणेवि नष्टकर।
अर्थ-सभी चिन्ताओं को छोड़कर जिसका मन परमपद (सिद्ध परमात्मा) में निवास करता है, वह फिर आठों कर्मों का नाश (हनन) कर परमगति (निर्वाण) को प्राप्त करता है।
भावार्थ-जो पुरुष उत्तम सुख को पाना चाहता है, उसे सभी विकल्पों तथा चिन्ताओं को छोड़कर निज शुद्धात्म स्वभाव का सेवना करना चाहिए। निज शुद्धात्मा अखण्ड आनन्द स्वभावी है, परम आहलाद रूप है, अविनश्वर है, मन और इन्द्रियों से रहित है, इसलिए सदा काल सिद्ध परमात्मा उसका सेवन करते हैं। सिद्धों के जो उत्तम अविनाशी (मोक्ष) परम सुख हुआ है, वह निज आत्मिक उपादान शक्ति से उत्पन्न हुआ है। उस परम सुख के होने में रंच मात्र भी पर की सहायता नहीं है। आचार्य पूज्यपाद के शब्दों में
आत्मोपादानसिद्धं स्वयमतिशयवद्वीतबाधं विशालं। वृद्धिह्रासव्यपेतं विषयविरहितं निःप्रतिद्वन्दभावम्। अन्यद्रव्यानपेक्षं निरुपमममितं शाश्वतं सर्वकालमुत्कृष्टानन्तसारं परमसुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम् ॥-सिद्धभक्ति, श्लोक 7 अर्थात्-आत्मा की उपादान शक्ति से होने वाला वह परम सुख सभी प्रकार
1. अ चित्ति ववेइ; क, द, स चित्त चवि; ब चित्त चवेइ।
पाहुडदोहा : 91