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है, तो इसको बड़ा दुःख होता है। यदि वृद्धों से पूछा जाए कि जन्म भर आपने इन्द्रियों के भोग भोगे, इनसे अब तो तृप्ति हो गई होगी? तब यही उत्तर मिलेगा कि कुछ दिन और भोगकर देख लिया जाए। वास्तव में उनकी तृष्णा बढ़ जाती है। मनुष्य का शरीर तो पुराना होता जाता है, इन्द्रियों की शक्ति घटती जाती है, लेकिन भोगों की तृष्णा दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती जाती है। इसलिए विषय-भोगों की अभिलाषा भी दुःखदायक है। जिनकी चाह सन्तापकारक है, वे यदि हमारे जीवन में होंगे, तो क्या-क्या अनर्थ उत्पन्न नहीं करेंगे। अतएव विवेकवान विषय-भोगों को दूर से ही छोड़ देता है, उनके पास भी नहीं जाना चाहता है।
जसु मणि णाणु ण विप्फुरइ सव्व वियप्प हणंतु। ..
सो किम पावइ णिच्चसुहु सयलई धम्म कहंतु ॥66॥ ___ शब्दार्थ-जसु-जिसके; मणि-मन में; णाणु-ज्ञान; ण-नहीं; विप्फुरइ-स्फुरायमान होता है; सव्व-सब; वियप्प-विकल्प; हणंतु-मिटाता हुआ; सो-वह; किस-किस प्रकार; पावइ-पाता है; णिच्चसुहु-नित्यसुख; सयलइं-सभी; धम्म-धर्म (को); कहंतु कहता हुआ। _अर्थ-जिसके मन में सभी विकल्पों को दूर करने वाला ज्ञान स्फुरायमान नहीं होता, वह सभी धर्म की बातें कहता हुआ भी नित्य सुख को किस प्रकार प्राप्त कर सकता है?
भावार्थ-यथार्थ में ज्ञान अतीन्द्रिय तथा आनन्दमय है। अल्पज्ञानी को जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं हुआ, तब तक उसके वीतराग निर्विकल्प ध्यान के समय में स्वसंवेदन ज्ञान होने के कारण इन्द्रियजनित ज्ञान नहीं है। सामान्यतः प्रत्येक प्राणी को मन और इन्द्रियों की सहायता से बोध या ज्ञान होता है। केवलज्ञानियों के तो किसी भी समय में इन्द्रियज्ञान नहीं है, नित्य अतीन्द्रिय ज्ञान रहता है। इसे आत्मज्ञान या सम्यग्ज्ञान भी कहते हैं। इसका जन्म आत्मा के ज्ञान-स्वभाव से होता है। यह सम्यग्दर्शन के साथ उत्पन्न होता है। वास्तव में स्वसंवेदन ज्ञान के बल पर ज्ञान की ज्ञान रूप अनुभूति होती है। पश्चात् सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान दीपक के प्रज्वलन तथा प्रकाश की भाँति एक साथ प्रकट होते हैं। सम्यग्दर्शन-ज्ञान होने पर ही धर्म होता है और धर्म के बिना किसी भी जीव को कभी भी परम, नित्य, अखण्ड, अविनाशी आनन्द की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए इन्द्रियों के माध्यम से होने वाला ज्ञान सब तरह से हेय है और अतीन्द्रियज्ञान उपादेय है। 1. अ सयलह; क, द, ब, स सयलई।
90 : पाहुडदोहा