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मौन रहें वनवास गहें, वर काम दहें जु सहें दुःख भारी। पाप हरें सुभ रीति करें, जिनवैन धरें हिरदे सुखकारी ॥ देह तपें बहु जाप जपें, न वि आप जपें ममता विसतारी। ते मुनि मूढ करें जगरूढ, लहें निजगेह न चेतनधारी ॥-द्यानतविलास, पद 56
इसी प्रकार आत्मश्रद्धान से विमुख गृहस्थ विषय-भोगों तथा व्यसनों में लीन होकर सुख प्राप्त करना चाहते हैं, तो वास्तविक परम सुख इन्द्रियों के विषयों के सेवन से प्राप्त नहीं हो सकता। स्वच्छन्दता का जीवन त्यागने योग्य ही है। स्वच्छन्दता का जीवन वे ही बिताना चाहते हैं, जिनके लौकिक सुख की उत्कट अभिलाषा है। वास्तव में इन्द्रियजन्य सुख अन्त में दुःख व सन्तापदायक ही है।
देहमहेली एह वढ तउ संतावइ' ताम। चित्तु णिरंजणु परेण सहु समरसि होइ ण जाम ॥65॥ ___ शब्दार्थ-देहमहेली-देह (रूपी) महिला; एह-यह; वढ–मूर्ख; तउ-तुझे, तुमको; संतावइ-सन्तप्त करती है; ताम-तब तक; चित्तु-चित्त; णिरंजणु-निरंजन; परेण सहु-परम (निरंजन) के साथ; समरसि-समरस; होई-होती है; ण-नहीं; जाम-जब तक।
अर्थ-हे मूढ! यह देह रूपी महिला तुझे तब तक संतापित करती है, जब तक मन निरंजन (भगवान् आत्मा) के साथ समरस नहीं होता।
भावार्थ-इस शरीर के साथ रहते हुए मूढ़ आत्मा ने शरीर को स्थिर मानकर जो पाप कर्म किए हैं, उससे दुःखों की परम्परा इसने उठाई है। यदि यह इस शरीर से ममता हटा ले, तो ऐसी कौन-सी सम्पत्ति है जो इसको प्राप्त न हो सके? क्या इन्द्र की, क्या चक्रवर्ती की, क्या नारायण की? पं. भैया भगवतीदास कहते हैं
रे मन मूढ़ कहा तुम भूले हो, हंस विचार लगे पर छाया।
यामें सरूप नहीं कछू तेरो जु, व्याधि की खोट बनाई है काया ॥ • . सम्यक् रूप सदा गुन तेरो है, और बनी सब ही भ्रममाया। देख तू रूप अनूप विराजत, सिद्ध समान जिनन्द बताया ॥
-ब्रह्मविलास, पद 47 जब यह प्राणी तृष्णा होते हुए भोगों को असमर्थता के कारण भोग नहीं सकता
1. अ, ब, स संतावइ, क, द सत्तावइ; 2. अ परेण; क, द, ब, स परिण; 3. अ सहु; क, द, स सिहं व सुहु।
पाहुडदोहा : 89