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________________ वर्षों तक कीजिए, लेकिन तत्त्वज्ञान के बिना अन्तर की उज्ज्वलता प्रकट नहीं होती। पं0 द्यानतरायजी के शब्दों में इष्ट अनिष्ट पदारथ जे जगत माहिं, तिन्हें देख राग-दोष-मोह नाहिं कीजिए। विषय सेती उचटाइ त्याग दीजिए कषाय, चाह-दाह धोय एक दशा माहिं भीजिए ॥ तत्त्वज्ञान को सँभार समता सरूप धार, जीत के परीसह आनन्द-सुधा पीजिए। मन को सुवास आनि नानाविध ध्यान ठानि, अपनी सुवास आप आप माहिं भीजिए ॥द्यानतविलास, पद 51 अतः ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही मलिनता से छुटकारा मिल सकता है। जेण णिरंजणि मणु धरिउ विसयकसायहिँ जंतु। मोक्खह कारणु' एहु वढ अवरइ तंतु ण मंतु ॥6॥ शब्दार्थ-जेण-जिसने, जिसके द्वारा; णिरंजणि-निरंजन में; मणु-मन; धरिउ-लगाया; विसयकसायहि-विषय-कषयों में; जंतु-जाते हुए; मोक्खह-मोक्ष का; कारणु-कारण; एहु-यह; वढ-मूर्ख; अवरइ-और; तंतु ण मंतु-तन्त्र-मन्त्र नहीं है)। अर्थ-जिसने विषय-कषायों में जाते हुए अपने मन को शुद्ध उपयोग में स्थिर कर लिया, तो वही स्थिरता मोक्ष का कारण है। हे मूढ! अन्य किसी तन्त्र या मन्त्र आदि से मोक्ष नहीं मिलता। भावार्थ-विषय-कषाय में लगने वाले अपने मन को जिस पुरुष ने निरंजन परमात्मा में लगा लिया है, स्थिर कर लिया है, सो वही मोक्ष का कारण है; अन्य मन्त्र, तन्त्र आदि कोई भी मोक्ष का कारण नहीं है। . . . यह दोहा ‘परमात्मप्रकाश' में प्रक्षेपकों में से एक है जो मूल में 'पाहुडदोहा' का ही प्रतीत होता है। इसकी टीका में कहा गया है कि जो कोई निकट संसारी जीव शुद्धात्मतत्त्व की भावना से विपरीत विषय-कषायों में जाते हुए मन को वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान के बल से परिवर्तित कर निज शुद्धात्मद्रव्य में स्थापित 1. अ, द, ब, स मणु धरिउ; क धरिउ मणु; 2. अ विसयकसाया; द, ब, स विसयकसायहिं; 3. अ कारणि; क, द, ब, स कारणु; 4. अ, क, ब, स एहु वढ; द एत्तडउ। __ पाहुडदोहा : 87
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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