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भावों से यह जीव कर्म से रहित होकर प्रशंसनीय शिवपद (मुक्ति को) को प्राप्त करता है। इसलिए शुभ, अशुभ भावों से विरक्त होकर शुद्ध भाव ही करना योग्य है। शुद्ध भावों से ही आत्मा का विकास होता है। आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है
वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा।
एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्षहेतुस्तदेव तत् ॥-समयसारकलश, श्लोक 106 अर्थात् आत्मज्ञान के स्वभाव से वर्तना सदा ही ज्ञान में परिणमन करना है, क्योंकि वहाँ एक आत्मद्रव्य का ही स्वभाव है, इसलिए यही मोक्ष का साधन है। जब आत्मा निज स्वभाव में ही वर्तता है अर्थात् आत्मस्थ हो जाता है, तब. मोक्ष का मार्ग प्रकट होता है।
अभिंतरचित्तु जु' मइलियई बाहिरि काइं तवेण। चित्ति' णिरंजणु कोवि धरि मुच्चहि जेम मलेण ॥62॥
शब्दार्थ-अभिंतरचित्तु-आभ्यन्तर चित्त; जु-जो; मइलियइ-मैला (है); बाहिरि-बाहर में; काई-क्या; तवेण-तप द्वारा; चित्ति-चित्त में; णिरंजणु-निरंजन; कोवि-कोई; धरि धारण करो; मुच्चहि-छुटकारा हो; जेम-जिस प्रकार; मलेण-मलिनता से।
अर्थ-जो चित्त भीतर में मैला है, उसके लिए बाहर में तप करने से क्या? उस निरंजन सिद्ध परमात्मा की चित्त में स्थापना कर जिससे मलिनता से छुटकारा हो।
भावार्थ-मिथ्याज्ञानी घोर तप करके जिन कर्मों को बहुत जन्मों में क्षय करता है, उन कर्मों को आत्मज्ञानी सम्यग्दृष्टि मन, वचन, काय को रोक करके ध्यान के द्वारा एक अन्तर्मुहूर्त में क्षय कर देता है। (मोक्षपाहुड, गा. 53)
' आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि जो मोह के मैल को नाशकर इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर तथा मन को रोककर अपने स्वभाव में भली-भाँति स्थित होता है, वही आत्मध्यानी है। (प्रवचनसार, गा. 108)
संसारी जीवों का चित्त निरन्तर विषय-कषाय से मलिन हो रहा है। चित्त का मैल तत्त्वज्ञान से दूर हो सकता है। यदि शीशी भीतर में मैली है, तो बाहर में उसे कितनी ही बार क्यों न धोइए, वह उज्ज्वल नहीं हो सकती। इसी प्रकार बाहरी तप
1. अ, क, द अभिंतरचित्ति वि; ब अभिंतरि मणा; स अभिंतर चित्तु जु; 2. अ मलिइयइ; क, द, स मइलियई, ब मईलियइ; 3. अ, क, ब बाहिर; स, द बाहिरि; 4. अ, स चित्तु; क, द, व चित्ति; 5. अ, द, स णिरंजणु; क, ब णिरंजणि; 6. अ का वि; क, द, ब, स को वि।
86 : पाहुडदोहा