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त्वत्संस्तवेन भव - सन्तति - सन्निबद्धं पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् । आक्रान्त-लोकमलि-नीलमशेषमाशु सूर्यांशु-भिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥7॥
जिनवर की स्तुति करने से, चिरसंचित भविजन के पाप । पलभर में भग जाते निश्चित, इधर-उधर अपने ही आप || सकल लोक में व्याप्त रात्रि का, भ्रमर सरीखा काला ध्वान्त । प्रातः रवि की उग्र किरण लख, हो जाता क्षण में प्राणान्त ॥
चिंतइ जंपइ कुणइ णवि जो मुणि बंधणहेउ । केवलणाणफुरंततणु सो परमप्पउ देउ ॥61॥
शब्दार्थ-चिंतइ-चिन्ता करता है; जंपर - कहता है; कुणइ - करता है; णवि-नहीं; जो मुणि-जो मुनि; बंधणहेउ - बन्धन के कारण; केवलणाणफुरंत - तणु - केवलज्ञान से स्फुरायमान शरीर ( वाला); सो - वह; परमप्पउ देउ - परमात्मा देव ( है ) |
अर्थ - जो मुनि बन्धन के कारण की न तो चिन्ता करता है, न उसके सम्बन्ध में कहता है और न करता है ( अर्थात् अपने स्वभाव में लीन रहता है), वह केवलज्ञान से स्फुरायमान तन सहित परमात्मदेव है ।
भावार्थ-राग-द्वेष में चलने का नाम संसार है। संसार है तो उसमें रहना पड़ता है । संसार में रहना ही सांसारिक बन्धन है । बन्ध है तो बन्धन है । संसारी प्राणियों को पूर्व बाँधे कर्मों के उदय के अनुकूल सुख तथा दुःख होता है । मेरे मन में उनमें राग-द्वेष कदाचित् प्रकट नहीं होता - यह जानकर जो सुख-दुःख में समता भाव रखता है, वह बुद्धिमान पूर्व संचित कर्मों का क्षय करता है और नवीन कर्मों का संचय नहीं करता। आचार्य अमितगति के शब्दों में
भवति भविनः सौख्यं दुःखं पुराकृतकर्मणः । स्फुरति हृदये रागो द्वेषः कदाचन मे कथम् ॥ मनसि समतां विज्ञायेत्थं तयोर्विदधाति यः ।
क्षपयति सुधीः पूर्वः पापं चिनोति न नूतनम् ॥ तत्त्वभावना, श्लोक 102 अशुभ भावों से नरकगति होती है, शुभ भावों से स्वर्ग मिलता है । किन्तु शुद्ध
1. अ, क, ब, स देउ; द भेउ ।
दोहा : 85