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वास्तविक सहज सुख उपलब्ध होता है, इसलिए उस जिनेन्द्र को 'शंकर' नाम से भी कहते हैं, इसमें सन्देह नहीं है।
जिनदेव कहीं बाहर में नहीं अपने ही घट में भगवान् आत्मा के रूप में विराजमान हैं। किन्तु हम उनके दर्शन तब तक प्राप्त नहीं कर सकते, जब तक दर्शनमोह (मिथ्यात्व) के आवरण से हमारे ज्ञानरूपी नेत्र बन्द हैं। आचार्य कुमुदचन्द्र के शब्दों में-"नूनं न मोहतिमिरावृत्तलोचनेन पूर्वं विभो सकृदपि प्रविलोकितोऽसि।"
-कल्याण, 37 अर्थात् हे प्रभो! निश्चय से मोहान्धकार से आवृत होने के कारण इन नेत्रों से इसके पूर्व कभी एक बार भी आपके दर्शन नहीं हुए।
अप्पा केवलणाणमउ' हियडइ णिवसइ जासु। तिहुवणि अच्छउ मोक्कलउ पावु ण लग्गइ तासु ॥60॥
शब्दार्थ-अप्पा-आत्मा; केवलणाणमउ-केवलज्ञानमय; हियडइहृदय (में); णिवसइ-रहता है; जासु-जिसके; तिहुवणि-तीनों लोक में अच्छउ-रहे, हो; मोक्कलउ-मुक्त; पावु-पाप; ण लग्गइ-नहीं लगता है; तासु-उसके।
अर्थ-जिसके हृदय में केवल ज्ञानमय आत्मा (पूर्ण वीतरागी) निवास करता है, वह तीनों लोकों में मुक्त है। उसे कोई पाप नहीं लगता।
भावार्थ-जब मोहरूपी अन्धकार दूर हो जाता है, तब ज्ञान-ज्योति का प्रकाश होता है; उसी समय अन्तरंग में सहज सुख का अनुभव होता है। जिसके स्मरण मात्र से ऐसी ज्ञान-ज्योति प्रकट होती है, उस परमात्मा का ध्यान कर। जो परम ज्योति परमात्मा में प्रकाशमान है, वही भगवान् आत्मा में भी विद्यमान है। लेकिन उस केवलज्ञान-ज्योति को हमने कभी भी एक समय की पर्याय में आज तक प्रकाशित नहीं की, इसलिए मोह के अन्धकार में रहते आये हैं। अब सम्यग्ज्ञान या आत्मज्ञान के प्रकाश में उस भगवान् आत्मा देव की शीघ्र ही इस देह के भीतर खोज कर। उस परम सत्य की खोज करने वाले को रंच मात्र भी पाप नहीं लगता।
यथार्थ में निज शुद्धात्मा के दर्शन करने से पूर्व संचित पाप कर्म नष्ट हो जाते हे और नया कर्म नहीं बँधता है। जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करने की भी यही महिमा है। आचार्य मानतुंग के शब्दों में
1. अ केवलणाणमउं; क, द, ब, स केवलणाणमउ; 2. अ तिहूअण; क, द, स तिहुयणि; व तिहुवणि।
84 : पाहुडदोहा