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________________ आत्मा का अनुभवन करना। निश्चय करि इस उपरान्ति किछू भी सार नाहीं है।" (समयप्राभृत, नई दिल्ली, 1988, पृ. 600) यह कथन तो अब स्पष्ट हो गया है कि जो भी आचार्य अमृतचन्द्र या जयसेनाचार्य की टीका का निष्पक्ष रूप से अध्ययन करता है, वह यह मानता है कि चतुर्थ गुणस्थान में स्वानुभूति अवश्य होती है। मुनिश्री वीरसागर जी के शब्दों में ___"श्रीजयसेनाचार्यजी आगम भाषा और अध्यात्म भाषा का मिलान दिखाते हुए कहते हैं कि स्वानुभूति से ही सम्यग्दर्शन प्रकट होता है याने स्वानुभूति होती है, तो ही दर्शनमोहनीय की प्रकृतियों का उपशम-क्षयोपशम होता है। स्वानुभूति नहीं होती तो मिथ्यादृष्टि है, वह चतुर्थादि गुणस्थानवर्ती नहीं है।" (समयसार, अनुवादक श्रीवीरसागरजी महाराज, सोलापुर, 1983, पृ. 387) अम्हहिं जाणिउ एकु जिणु जाणिउ देउ अणंतु। णवरि सु मोहें मोहियउ अच्छइ दूरि भमंतु ॥59॥ . शब्दार्थ-अम्हहिं-हमने, हमारे द्वारा; जाणिउ-जाना (गया); एक जिणु-एक जिन (देव); जाणिउ-जान लिया; देउ-देव; अणंतु-अनन्त; णवरि-केवल; सु मोहें-भलीभाँति मोह से; मोहियउ-मोहित; अच्छइ-है; दूरि-दूर; भमंतु-घूमता हुआ। अर्थ-यदि हमने एक जिनदेव को जान लिया, तो अनन्त देवों को जान लिया। मोह (मिथ्यात्व) में मत चल। जो केवल दर्शनमोह से मोहित है, वह दूर ही घूमा करता है अर्थात् कभी जिनदेव के पास नहीं आता। यथार्थ में जिनदेव अनन्त हैं। किन्तु उन जिनदेवों में कोई भेद नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशी जिनदेव होता है। जो पूर्णतः वीतरागी और सर्वज्ञ नहीं है, वह जिनदेव नहीं है। वस्तुतः जैसा एक जिनदेव होता है, वैसे ही अनन्त जिनदेव होते हैं। उनमें लक्षण-भेद नहीं पाया जाता। इसलिए जिसने एक जिनदेव को सम्पूर्ण रूप से जान लिया, उसने सभी जिनदेवों को जान लिया। क्योंकि सभी जिनराज 'शंकर' अर्थात् सहज सुखकारक हैं। श्रीपद्मनन्दि मुनि कहते हैं अव्वावाहमणंतं जम्हा सोक्खं करेइ जीवाणं। तम्हा संकर णामो होइ जिणो णत्थि संदेहो ॥-धम्मरसायण, गा. 125 अर्थात्-जिनेन्द्र के स्वरूप के ध्यान से जीवों को बाधा रहित, अनन्त, 1. अ, ब अम्हह; क, स अम्हहं; द अम्हहिं; 2. अ, द, स णवरि सुः क ण चरिसु; ब णवर सु; 3. अ मोहि; क, द, ब, स मोहे; 4. अ, द, स भमंतु; क भवंतु; व भमंत। पाहुडदोहा : 83
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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