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सम्यग्दृष्टि को स्वानुभूति का आवरण करने वाले कर्म का क्षयोपक्षय अवश्य होता है। सम्यक्त्व होते ही आवरण करने वाले कर्म का नाश हो जाता है। (दे. धर्मपरीक्षा, श्लोक 407, 846) पण्डितप्रवर टोडरमल जी के शब्दों में “बहुरि नीचली दशा विर्षे केई जीवनि कै शुभोपयोग अर शुद्धोपयोग का युक्तपना पाइए है। तातें उपचार करि व्रतादिक शुभोपयोग को मोक्षमार्ग कया है।” (मोक्षमार्ग प्रकाशक, सातवाँ अधिकार, पृ. 310, दिल्ली संस्करण)
णिच्चु णिरामउ णाणमउ परमाणंदसहाउ। अप्पा बुज्झिउ जेण परु' तासु ण अण्णुः हि भाउ ॥58॥
शब्दार्थ-णिच्चु-नित्य; निरामउ-निरामय; णाणमउ-ज्ञानमय; परमाणंद-सहाउ-परमानन्द स्वभावी; अप्पा-आत्मा; बुज्झिउ-जाना, समझा; जेण-जिसने, जिसके द्वारा; परु-फिर; तासु-उसके; णं-नहीं; अण्णु-अन्य; हि-ही; भाउ-भाव।
अर्थ-परमानन्द स्वभावी नित्य, निरामय, ज्ञानमय आत्मा को जिसने जान लिया, उसके फिर अन्य कोई भाव नहीं रहता।
भावार्थ- बूझने' या 'जानने' का अर्थ यहाँ पर अनुभव करने से है। आचार्य अमृतचन्द्र स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि एक परमार्थ का ही चिन्तवन करना चाहिए। उनके शब्दों में
अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पैरयमिह परमार्थचिन्त्यतां नित्यमेकः। स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रान्न खलु समयसारादुत्तरं किञ्चिदस्ति ॥
-समयसारकलश, श्लोक सं. 244 पं. जयचन्द जी छावड़ा के अनुसार
"व्यवहारनय का तो विषय भेदरूप है। सो अशुद्ध द्रव्य है। सो परमार्थ नाहीं। अर निश्चयनय का विषय अभेदरूप शुद्धद्रव्य है सो परमार्थ है। सो जे व्यवहार ही कू निश्चय मानि प्रवर्ते हैं तिनिकै समयसार की प्राप्ति नाहीं है। अर जे परमार्थ कू परमार्थ जाने हैं तिनि के समयसार की प्राप्ति होय है। ते ही मोक्षफू पावे हैं। आचार्य कहे हैं, जो अति बहुत कहने करि अर बहुत दुर्विकल्पनि करि तौ पूरि पडो। इस अध्यात्म ग्रन्थ विर्षे यह परमार्थ है, सो ही एक निरन्तर अनुभवन करना। जातें निश्चय करि अपने रस का फैलाव करि पूर्ण जो ज्ञान ताका स्फुरायमान होने मात्र जो समयसार परमात्मा तिस सिवाय अन्य किछू भी सार नहीं है। पूर्ण ज्ञानस्वरूप
1. अ, क, द, स परु; व पर; 2. अ, क अण्णहि; व अण्णहिं; द, स अण्णु हि।
82 : पाहुडदोहा