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अण्णु तुहारउ णाणमउ लक्खिउ जाम ण भाउ। संकप्प-वियप्प' अणाणमउ दहउ चित्तु वराउ ॥57॥
शब्दार्थ-अण्णु-अन्य, दूसरा; तुहारउ-तुम्हारा; णाणमउ-ज्ञानमय; लक्खिउ-लखा; अनुभव किया; जाम ण-जब तक नहीं; भाउ-(स्व) भाव (को); संकप्प-वियप्प-संकल्प-विकल्प; अणाणमउ-अज्ञानमय; दडउ-दग्ध हो गया; चित्तु-चित्त; वराउ-बेचारा।
अर्थ-जब तक तुमने अपने ज्ञान भाव को नहीं लखा है, तब तक बेचारा चित्त अज्ञानमय संकल्प-विकल्प से दग्ध होता रहेगा।
भावार्थ-ज्ञान का ज्ञानमय देखना (लखना) ही शुद्धात्मा की स्वसंवेद्य ज्ञानानुभूति या आत्मानुभूति है। वास्तव में आत्मा अनुभव की वस्तु है। आत्मा को शब्दों से भली-भाँति नहीं बताया जा सकता, लौकिक भावों से नहीं समझाया जा सकता और प्रवचनों से भी वह समझ में नहीं आता। आत्मा को केवल स्वानुभव से समझ सकते हैं। वास्तव में निज शुद्धात्मा की अनुभूति तत्त्व के अभ्यास से ही सम्भव है। कुछ जिनागम के पाठी ऐसा कहने लगे हैं कि मिथ्यात्व व अज्ञान की दशा में अशुद्ध ज्ञान से शुद्धात्मा का अनुभव कैसे हो सकता है? यह तो सत्य है कि मिथ्यात्व व अज्ञान से आत्मानुभव नहीं होता; लेकिन अशुद्ध ज्ञान से शुद्धात्मा का अनुभव हो सकता है। आचार्य जयसेन के अभिप्राय के अनुसार केवलज्ञान शुद्ध होता है और छद्मस्थ (अल्पज्ञानी) का ज्ञान अशुद्ध है। अतः वह शुद्ध केवल ज्ञान का कारण नहीं हो सकता। लेकिन आचार्य जयसेन का कथन है-“ऐसा नहीं है। छद्मस्थ के ज्ञान में कथंचित (किसी अपेक्षा से) शुद्धाशुद्धत्व होता है। वह इस प्रकार है कि केवलज्ञान की अपेक्षा तो वह शुद्ध नहीं है, तथापि मिथ्यात्व रागादि से रहित होने के कारण तथा वीतराग सम्यक्चारित्र से सहित होने के कारण वह शुद्ध भी है।" (देखिए, जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भा. 1, पृ. 86) संक्षेप में यही समझना चाहिए कि शुक्लध्यान रूप स्वसंवेदनज्ञान इस काल में इस क्षेत्र में किसी को भी नहीं होता है, किन्तु धर्मध्यान रूप स्वसंवेदन ज्ञान किसी भी अन्य जीव के हो सकता है। (समयसार, गा. 10 तात्पर्यवृत्ति टीका) . वास्तव में सामायिक, धर्मध्यान के काल में गृहस्थों (श्रावकों) के शुद्धभावना देखी जाती है और उस अशुद्ध अवस्था में शुद्ध ध्येय तथा शुद्ध का अवलम्बन होने से शुद्धोपयोग घटित होता है। (द्रव्यसंग्रह, गा. 34) इसमें सिद्धान्त यह है कि
1. अ, क, द, स संकप्पवियप्पिउ; ब संकविअप्पउ; 2. अ णाणमइ; क, द, ब, स णाणमउ।
पाहुडदोहा : 81