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करती है, क्योंकि सम्पूर्ण वस्तुएँ सामान्य विशेषात्मक हैं। इसलिए उनको प्रतिभासित करने वाली चेतना भी द्विरूपता का उल्लंघन नहीं करती।
परमार्थतः चेतना अद्वैत है, लेकिन सामान्य-विशेष प्रतिभास रूप भी है। उसके जो दो रूप हैं-वे दर्शन और ज्ञान हैं। सामान्य दर्शन रूप है और ज्ञान विशेष रूप। वास्तव में वह तो सदा शुद्ध चैतन्यमय एक परमज्योति ही है। चैतन्य तो एक चिन्मय भाव ही है, अन्य भाव परभाव है। अतः यह सिद्वान्त सेवन करने योग्य है। (समयसारकलश, 185) सत्ता स्वरूप वस्तु का कभी नाश नहीं होता। ज्ञान भी स्वयं सत्ता स्वरूप वस्तु है। अतः अरक्षा का भय कहाँ है? (समयसारकलश, 157) वह स्वतःसिद्ध ज्ञान एक है, अनादि है, अनन्त है, अचल है। वह जब तक है. तब तक सदा ही वही है, उसमें दूसरे का उदय नहीं है। (समयसारकलश, 160)
इस लोक में पाए जाने वाले सभी द्रव्यों का अस्तित्व स्वतन्त्र है। वास्तव में अस्तित्व द्रव्य का स्वभाव है। जैसे द्रव्य स्वभाव से सिद्ध है, वैसे ही उसकी सत्ता स्वभावसिद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में
“दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा।” (प्रवचनसार, गा, 98) __ अर्थात्-जिनेन्द्र भगवान् ने तत्त्वतः द्रव्य को स्वभाव से सिद्ध और सत् कहा
इस प्रकार सत्ता एक अखण्ड द्रव्य की है। सभी द्रव्य सत्तावान हैं। जो अखण्ड है वह एक है और जो एक है वह अखण्ड है। आत्मा ज्ञानरूप एक ही है। आचार्य अमृतचन्द्र के शब्दों में
एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्विमभीप्सुभिः। . साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम् ॥ समयसारकलश, 15
अर्थात् आत्मा ज्ञानस्वरूप एक ही है, किन्तु उसका पूर्ण रूप साध्यभाव है और अपूर्ण रूप साधक भाव है; ऐसे भावभेद से दो प्रकार से एक का ही सेवन करना चाहिए।
इस प्रकार जो साधक है, वही साध्य है। जैनदर्शन के अनुसार जो वास्तविक कारण है, वही कार्य रूप में परिणत होता है। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ, सदा अरूपी हूँ। (समयसार, गा. 38)
संक्षेप में, वस्तु सत्ताप्रमाण है। सत्ता स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से है। परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव से सत्ता नहीं है। इसका भावार्थ यह है कि आत्मा की सत्ता किसी परम पुरुष या परब्रह्म से नहीं है, किन्तु ब्रह्मस्वरूप निज चैतन्य तत्त्व से है। दूसरे शब्दों में सत्ता अकेले अपने 'सत्' से है, किसी में किसी को मिलाकर किसी सर्वशक्तिमान से अपनी सत्ता नहीं है। "णिम्मलु होइ
6 : पाहुडदोहा