SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिस प्रकार स्वर्ण निर्मित विविध आभूषणों को उनकी विविध अवस्थाओं के रूप में देखा जाए, तो वे भिन्न-भिन्न हैं; परन्तु उन सभी में स्वर्णत्व एक है। स्वर्ण प्रत्येक अवस्था में स्वर्णरूप रहता है । वस्तुतः आत्मा स्वर्ण की भाँति राग-द्वेष, मोह आदि अनेक तरह के विभावों, शरीर तथा भौतिक पदार्थों के साथ अनादि काल से संसार अवस्था में रहता है, लेकिन कभी भी अपने स्वभाव को, चैतन्य गुण को छोड़कर अन्य रूप नहीं होता । महाकवि बनारसीदास के शब्दों में चेतन लक्षण आतमा, आतम सत्ता माहिं । सत्तापरिमित वस्तु तै, भेद तिहूं में नाहिं ॥ समयसार नाटक, मोक्षद्वार 11 अर्थात् आत्मा का लक्षण चेतना है । आत्मा (अपनी ) सत्ता में है, क्योंकि सत्ता रूप धर्म के बिना आत्मा एक पदार्थ है- -यह सिद्ध नहीं होता । प्रत्येक वस्तु सत्ताप्रमाण है । यथार्थ में द्रव्य की अपेक्षा तीनों में भेद नहीं है, एक ही है । दृष्टान्त देकर सुबुद्धि सखि को ब्रह्म का स्वरूप समझाते हुए वे कहते हैं कि परमात्मा निजघट में व्यापक है। ज्ञान रूप परिणमन करने वाला और अज्ञान दशा में वर्तने वाला वह कौन है? वही है । उनके शब्दों में देख सकी यह ब्रह्म विराजित, याकी दसा सब याही कौ सोहै । एक मैं एक अनेक अनेक में, दुंद लिए दुविधा महं दो है । आ संभारि लखे अपनो पद, आपु विसारिके आपुहि मोहै । व्यापकरूप यह घर अन्तर, ग्यान में कौन अग्यान में को है? - समयसार नाटक, मोक्षद्वार, 13 संता एक की है जैनदर्शन का मूल स्वरूप आचार्य कुन्दकुन्द की पाहुड रचनाओं, कसायपाहुड, षट्खण्डागम आदि सूत्रग्रन्थों में उपलब्ध होता है । 'समयसार' आत्मा को एक त्रिकाली ज्ञायक, ध्रुव, अखण्ड, निष्क्रिय चिन्मात्र प्रतिपादित करता है । उसका मूल स्वर है कि आत्मा को शुद्ध चैतन्य मात्र ग्रहण करना चाहिए। चेतना दर्शन, ज्ञान रूप भेदों का उल्लंघन नहीं करती है। क्योंकि चेतनेवाला द्रष्टा - ज्ञाता होता है । आचार्य अमृतचन्द्र ‘समयसार’ गा. 299 में उसका विशदीकरण करते हुए कहते हैं कि चेतना प्रतिभास रूप है । वह चेतना विरूपता (दर्शन, ज्ञान) का उल्लंघन नहीं प्रस्तावना : 5
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy