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अम्मिए जो परु सो जि परु परु अप्पाण ण होइ।। हउं डज्झउ' सो उव्वरइ वलिवि ण जोवइ सोई ॥52॥
शब्दार्थ-अम्मिए-ओहो!; जो; परु-पर, अन्य; सो जि-वह तो; परु, परु-अन्य; अप्पाण-अपना; ण होइ-नहीं होता (है); हउं-मैं; डज्झउ-दग्ध हो गया; सो उव्वरइ-वह उबर जाता है; वलिवि-लौटकर; ण जोवइ-नहीं देखता है); सोइ-वह।
अर्थ-ओहो! जो पर (अन्य) है, वह पर ही है। पर अपना (आत्मा) नहीं हो सकता। क्योंकि मैं दग्ध (संतप्त) हो जाता हूँ और वह उबर जाता है। फिर वह लौटकर भी नहीं देखता।
भावार्थ-इन्द्रियों के माध्यम से जो भी देखने-जानने में आता है, वह सब 'पर' है। पर का अर्थ है-अपने से भिन्न। मकान, बाल-बच्चे, शरीरादि तो भिन्न ही हैं, लेकिन मन और राग-द्वेष, मोहादि (क्रोध, मान, माया, लोभ आदि) भाव भी आत्मा से भिन्न हैं। जो अपने से अलग हैं और अपने संग में हैं, वे कभी भी हमेशा के लिए अपने से अलग किए जा सकते हैं, लेकिन जो आप स्वयं 'स्व' है, वह किसी भी प्रकार से अलग नहीं हो सकता है और न किसी उपाय से अलग किया जा सकता है। पर के बारे में सोचने से चिन्ता होती है। चिन्ता सन्ताप का कारण है।
यथार्थ में 'पर' दुःख का कारण नहीं है, किन्तु पर में एकत्व बुद्धि ही दुःख का कारण है। विश्व में हजारों की संख्या में प्रतिदिन प्राणियों का जन्म-मरण होता है, लेकिन जिनके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, उनमें एकत्व बुद्धि नहीं है और इसलिए उनके चल बसने पर हमें कोई दुःख नहीं होता है।
___ एकत्व बुद्धि में 'अहं' भाव ही मुख्य है। जब तक अहंकार है, तब तक संसार है। अहंकार का विसर्जन हो जाने पर 'अहं' चला जाता है, आत्मा का अस्तित्व फिर भी बना रहता है। 'पर' में अहं बुद्धि के हटते ही संसार की रुचि समाप्त हो जाती है, इसलिए साधु-सन्त, योगी उस ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते।
उक्त दोहे में आत्मा और परमात्मा की अद्वैत स्थिति का वर्णन किया गया है। दोनों का अभेद वर्णन बहुत कम शब्दों में भावपूर्ण लक्षित होता है। कवि का भावार्थ यह है कि परमात्मतत्त्व उपादेय है। उसके सिवाय सब कुछ त्याज्य तथा हेय
1. अ, स डज्झउं; क, द, ब डज्झउ; 2. अ, क तो वि; द, व तोइ; स सोइ।
76 : पाहुडदोहा