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मूढा सयलु वि कारिमउ णिक्कारिमउ ण कोइ। जीवहु' जंत ण कुडि गयई यहु' पडिछंदा जोइ ॥5॥
शब्दार्थ-मूढा-मूढो! (सम्बोधन); सयलु वि-सभी (कुछ); कारिमउकर्म-रचना; णिक्कारिमउ-कर्म- निर्माण से रहित; ण कोइ-कोई नहीं है; जीवहु-जीव के जंत-जाते (ही); ण कुडि-कुटिया (शरीर); गयइ-गया; यहु-यह; पडिछंदा-प्रतिच्छंद, स्थानापन्न; जोइ-देखता है।
अर्थ-हे मूढो! यह सब (शरीर, मन-वचन, सुख-दुःख आदि) कर्म की रचना है। बिना कर्म के किसी की उत्पत्ति नहीं है-(अर्थात् जन्म-मरण कर्म के कारण हैं।) इसी दृष्टान्त को देख लो कि जीव के शरीर से निकलकर चले जाने पर उसके साथ शरीर नहीं जाता।
'परमात्मप्रकाश' की टीका में 'कारिमउ' का अर्थ ‘कृत्रिम' तथा 'णिक्कारिमउ' का अर्थ अकृत्रिम किया गया है।
भावार्थ-उक्त दोहा ‘परमात्मप्रकाश' के द्वितीय अधिकार के 128 दोहे का पहला चरण है और शेष तीनों चरण उसके बाद के दोहे (2, 129) के हैं। इन दोनों दोहों में कहा गया है-हे मूढ जीव! शुद्धात्मा के सिवाय अन्य सब विषयादिक विनाशशील हैं। संसार में सभी विनश्वर हैं, देहादि समस्त सामग्री विनाशीक है। अकृत्रिम कोई भी वस्तु नहीं है। शरीर से जीव के निकल जाने पर उसके साथ शरीर नहीं जाता। इस दृष्टान्त को प्रत्यक्ष देखो।
_हे योगिन्! टंकोत्कीर्ण अमूर्तिक पुरुषाकार ज्ञायक स्वभावी अकृत्रिम वीतराग परमानन्दस्वरूप आत्मा केवल अविनाशी है, शेष सब विनश्वर हैं। जैसा शुद्ध, बुद्ध परमात्मा अकृत्रिम है, वैसा देहादि में से कोई भी नहीं है, सब क्षणभंगुर हैं। इसलिए देहादि की ममता छोड़कर सम्पूर्ण विभाव (रागादि) भावों से रहित निज शुद्धात्म पदार्थ की भावना भानी चाहिए। __उक्त दोहे में ‘कारिमउ' का अर्थ 'कर्मकृत' अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। . . क्योंकि राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, रति, हास्य, शोक आदि भाव एवं
शरीर, घर-द्वार, दुकान-मकान, बाहरी वैभव, पद आदि तथा भोजन, वस्त्रादि सभी कर्म की रचना है।
1. अ जीवहो; क, द, ब, स जीवहु; 2. अ, क, ब, स जंत; द जंतु; 3. अ, द, ब, स कुडि गयइ; क कुडि गइय; 4. अ, स यहु; द इउ; क, ब, इहु; 5. अ परिछंदा; क, द, ब, स पडिछंदा।
पाहुडदोहा : 77