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आराहिज्जइ काई देउ परमेसरु कहिं गयउ। वीसारिज्जइ काई तासु जो सिउ सव्वंगउ ॥510
शब्दार्थ-आराहिज्जइ-आराधना की जाती (है); काइं-क्या; देउ-देव; परमेसरु-परमात्मा; कहिं गयउ-कहीं चला गया है; वीसारिज्जइ-विसारा जा सकता (है); विस्मृत किया जाता है; काई-क्या; तासु-उस (को); जो; सिउ-शिव; सव्वंगउ-सर्वांग (में व्याप्त है)।
अर्थ-क्या देव कहीं बाहर चला गया है जो उसकी आराधना की जाए? जो शिव (भगवान् आत्मा) सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है, उसका विस्मरण कैसे किया जा सकता है?
भावार्थ-आराधना कोई भी जीव कर सकता है। वास्तव में आराधना शुद्धात्म-स्वभाव या परमात्मा की होती है। आराधक आराध्य से भिन्न होता है। लेकिन यहाँ पर भगवान् आत्मा (कारण परमात्मा) आराध्य है और शुद्धात्मसेवी (साधु) जीव स्वयं आराधक है। इसलिए यह कहा गया है कि सारे शरीर में व्याप्त होकर रहने वाला ज्ञान-दर्शन-स्वभावी आत्मा सदा अपने असंख्यात प्रदेशों में रहता है। वह शरीर से निकलकर दो-चार घण्टे के लिए भी कहीं बाहर नहीं जाता। इसलिए अपने में रहने वाले को कौन भूल सकता है? इसी बात पर कवि ने व्यंग्य किया है कि जो सारे शरीर में व्याप्त है, उसे कैसे भूल सकते हैं?
_ 'शिव' का अर्थ आत्म-स्वभाव है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान-आनन्द है। ज्ञान आत्मा के सभी गुणों में तथा उसके सभी प्रदेशों में व्याप्त है। अतः ज्ञानी जीव राग, मोहादि को भूल सकता है, लेकिन ज्ञानस्वरूपी अपने रूप को कैसे भूल सकता है? यथार्थ में उस परमात्म तत्त्व का चिन्तन-मनन, स्मरण कर उसमें रमण करना ही सच्ची आराधना है। कहा भी है
. समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायत्तं । तह चारित्तं धम्मो सहाव-आराहणा भणिया ॥
-बृहत् नयचक्र, गा. 356 . . . अर्थात्-समता तथा माध्यस्थ, शुद्ध भाव और वीतरागता, चारित्र तथा धर्म ये सब स्वभाव की आराधना कहलाते हैं। अतः निज शुद्धात्म-स्वभाव में लीन रहना सम्यक् आराधना है।
1. अ काइ; क, द, ब, स काइं; 2. अ, क, स देउ; ब दिउ; 3. अ, द, ब परमेसरु; क, स परमेसरहं।
पाहुडदोहा : 75