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________________ मणु मिलियउ परमेसरह परमेसरु वि मणस्स। विण्णि वि समरसि हुइ रहिय पुज्ज चढाउं* कस्स 150॥ शब्दार्थ-मणु-मन; मिलियउ-मिल गया, जुड़ गया; परमेसरहंपरमेश्वर से; परमेसरु वि-परमेश्वर भी; मणस्य-मन का (हो गया); विण्णि वि-दोनों ही; समरसि-समरस, एकरस; हुइ रहिय-हो रहे; पुज्ज-पूजा; चढाउं-चढ़ाऊँ कस्स-किस (को); अर्थ-मन परमात्मा से मिल गया है और परमात्मा मन से (मन के विलीन होने से) मिल गया है। दोनों एक समरस भाव को प्राप्त हो रहे हैं। इसलिए मैं पूजा किसकी करूँ? अर्थात् पूजा की सामग्री किसमें समारोपित कर चढ़ाऊँ? भावार्थ-जब तक परमात्मा का परिचय, अवलोकन, दर्शन मात्र होता है, तब तक पूज्य-पूजक व्यवहार रहता है। वास्तव में तो पूजा करने वाला प्रशस्त मन यजमान है। किन्तु जब मन विशेष ज्ञान-ध्यान की स्थिति में भगवान् आत्मा में विलय को प्राप्त हो जाता है और दोनों समरस हो जाते हैं, तब पूज्य-पूजक का व्यवहार समाप्त हो जाता है। इसलिए जैनधर्म में साधु-सन्तों के लिए सामग्री चढ़ाकर पूजा करने का विधान नहीं है। उनके नियम से निश्चयभक्ति होती है। परमात्मप्रकाश' के दो क्षेपक दोहों में (1, 123,2) एक यह दोहा भी मिलता है जो ‘पाहुडदोहा' से सम्मिलित किया गया प्रतीत होता है। दोनों क्षेपक दोहे मुनि रामसिंह के ‘पाहुडदोहा' के ही हैं। उक्त दोहे का भावार्थ लिखते हुए टीकाकार ब्रह्मसूरि कहते हैं-जब तक मन भगवान् से नहीं मिला था, तब तक पूजा करता था और जब मन प्रभु से मिल गया, तब पूजा का प्रयोजन नहीं रहा। व्यवहार में गृहस्थ अवस्था में विषय-कषाय रूपी खोटे ध्यान से बचने के लिए पूजा, दान आदि की प्रवृत्ति होती है, तथापि वीतराग निर्विकल्प समाधि में लीन साधुओं के बाहरी व्यापार का अभाव होने से द्रव्यपूजा का प्रसंग नहीं आता है। वे भावपूजा में तन्मय होते हैं। यहाँ पर आत्मा-परमात्मा की अद्वैत स्थिति का वर्णन होने से रहस्यानुभूति स्पष्टतः अभिव्यंजित है। 1. अ, क, ब, स परमेसरह; द परमेसरहो; 2. अ वि; क, द, ब, स जि; 3. अ रहिया; क, द, ब, स रहिय; 4. अ, ब, स पुज्ज चडाउं; क, द पुज्ज चडावउं। 74 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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