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________________ वट्टडिया अणुलग्गयहं अग्गउ' जोवंताह। कंटउ भग्गउ पाउ जइ भज्जउ' दोसु ण ताह ॥48॥ . शब्दार्थ-वडिया-मार्ग, वाट (पर); अणुलग्गयह-लगे हुए; अग्गउ-आगे; जोवंताहं-देखते हुए; कंटउ-काँटे (से); भग्गउ-भग्न, घायल; पाउ-पाद, पैर; जइ-यदि; भज्जउ-भागने (का); दोसु-दोष; ण-नहीं; ताहं-उसके। अर्थ-जो मार्ग पर लगे हुए आगे (पथ) देखते हुए चलते हैं, उनके पैर में यदि काँटा लगने से वे घायल हो जाएँ, तो इसमें उनके भागने का कोई दोष नहीं भावार्थ-मार्ग का अर्थ है-अन्वेषण, खोज। मंजिल पर पहुँचने के लिए मार्ग एक ऐसा माध्यम है जिसके बिना यात्रा नहीं हो सकती है। लेकिन चौराहे पर खड़े हुए व्यक्ति को यह निश्चय करना होता है कि मुझे किस दिशा में जाना है? यदि दिशा का निर्णय ठीक नहीं होता है, तो उसे भटकना पड़ता है। अनादि काल से यह जीव (प्राणी) चौरासी लाख योनियों में इसलिए भटक रहा है कि इसे सच्चे सुख की दिशा का निश्चय नहीं हो सका है। आत्मा की खोज करने वाले व्यक्ति को यदि दिशा सही मिल जाती है और वह चलने का अभ्यास भी कर लेता है, तो विघ्न बाधाएँ, उपसर्ग-परीषह आये बिना नहीं रहते हैं। जिस तरह पैर में काँटा लगने का कारण भागकर चलना नहीं, किन्तु असावधानी है। इसी प्रकार मोक्ष-मार्ग पर चलकर कोई घोर उपसर्ग और परीषहों से आहत हो जाए, तो उसका दोष संयम-तप को नहीं दिया जा सकता है। क्योंकि साधु-सन्तों ने तो ऐसे घोर उपसर्ग समताभाव पूर्वक शमन किए थे, जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। और परीषह तो उनके जीवन का ही अंग है। वास्तव में आहत या विचलित होने का कारण आत्मा की अस्थिरता या चारित्र की कमजोरी है; न कि संयम-तप की साधना है। संयम से तो आत्मस्वभाव में गुप्त होते हैं और ध्यान की अग्नि में तप तपकर, आत्मा का शोधन कर उसे निर्मल करते हैं। 1. अ आगउ; क, द, ब, स अग्गउ; 2. अ, ब, स जोवंताहं; क, द जोयंताहं; 3. अ भाजइ पाइ जइ; क भग्गइ पाउ जइ; द भज्जउ पाइ जइ; ब भग्गउ पाइज्जइ; स भग्गउ पाउ जइ; 4. अ, क, द भज्जउ; ब, स भग्गउ; 5. अ, क, स ण ताहं; द कु ताह; ब ण ताहिं। 72 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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