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________________ मणु जाणइ उवएसडउ जहिं सोवइ अचिंतु। अचित्तहँ चित्तु जो मेलवइ सो पुणु होइ णिचिंतु ॥47॥ शब्दार्थ-मणु-मन; जाणइ-जानता है; उवएसडउ-उपदेश (को); जहिं-जहाँ; सोवइ-सोता (सो जाता) है; अचिंतु-निश्चिन्त (होकर); अचित्तहं-अचेतन से; चित्तु (को); जो; मेलवइ-हटा लेता है; सो पुणु-वह फिर; होई-होता है; णिचिंतु-निश्चिन्त। अर्थ-जब मन निश्चिन्त होकर सो जाता है अर्थात एकाग्र होकर थम जाता है, तभी वह उपदेश को समझता है। मन निश्चिन्त तभी होता है, जब अचित्त (अचेतन) से चित्त को अलग कर लेता है। भावार्थ-जब तक मन उधेड़-बुन में रहता है, कुछ-न-कुछ सोचता रहता है, संकल्प-विकल्पों में उलझा रहता है, तब तक स्थिर या एकाग्र नहीं होता। मन प्रत्येक समय सोच-विचार करता रहता है। कोई भी समय ऐसा नहीं होता जब निर्विकल्प होता हो। इसलिए यही समझना चाहिए कि मनुष्य विचाररहित नहीं होता। अतः निर्विचार होने का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता। परन्तु यह निश्चित है कि चिन्ता करना सभी तरह से अनुपयुक्त है। यह भी वास्तविकता है कि चिन्ता सदा अन्य (पर) की करता है। जिसे अपना समझता है और जो अपना नहीं है, उसकी ही चिन्ता की जाती है। चिन्ता रूप विचार सोते समय भी स्वप्न रूप में चलते रहते हैं। यथार्थ में विचारों की यह श्रृंखला जागते-सोते बनी रहती है। यदि स्वप्न एक मूर्छा की प्रक्रिया है, तो जागते हुए वही सब स्वप्न की तरह चलते रहना जाग्रत स्वप्न की क्रिया है। इन दोनों अवस्थाओं में मन जागता रहता है, पर आत्मा सोता है। 'आत्मा के सोने' का अर्थ है-ज्ञान की ज्ञान रूप जागृति का न होना। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं-जो योगी, ध्यानी, मुनि व्यवहार में सोता है, वह अपने स्वरूप के काम में जागता है और जो व्यवहार में जागता है, वह अपने आत्मकार्य में सोता है। (मोक्षपाहुड, गा. 31) वास्तव में सोने में मन का विश्राम होता है। सोते या विश्राम करते समय भी आत्मा जागृत रहता है। इसलिए किसी चींटी या कीड़ा के काटने पर वेदन होते ही अंगुलि वहाँ पहुँच जाती है। यथार्य में मनका विश्राम आत्म-स्वभाव में एकाग्र होना आत्मानुभूति की निर्विकल्प दशा का नाम है जो अतीन्द्रिय मानस-प्रत्यक्ष होती है। 1. छ, के, ब, स सोवइ; द सोवेइ; 2. अ, द, स अचिंतु; क अच्चिंतु; ब णिच्वंतु; 3. अ अचित्तहं; र अचित्तुहु क, द अचित्तहो; 4. अ जु; द, व जि; क, द, स जो। पाहुडदोहा : 71
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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