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'परमात्मप्रकाश' (2, 140 ) की टीका में 'पंच' का अर्थ पाँच ज्ञानों की प्रतिपक्षभूत पाँच इन्द्रियाँ किया गया है। अपभ्रंश के कवियों ने पाँचों इन्द्रियों के लिए 'बैल' के प्रतीक का प्रयोग किया है।
पंचहिं' बाहिरु णेहडउ' हलि सहि लग्गु पियस्स' । तासु ण दीसइ आगमणु जो खलु मिलिउ परस्स ॥ 46॥
शब्दार्थ- पंचहिं- पाँचों के; बाहिरु- बाहरी; णेहडउ - स्नेह (में); हलि सहि- हे सखि !; लग्गु – लगे हुए पियस्स - प्रियतम के; तासु - उसका ण दीसइ–नहीं दिखाई देता है; आगमणु-आना; जो; खलु - निश्चय, वास्तव में; मिलिउ–मिल गया ( है ); परस्स - पर से, दूसरे से ।
अर्थ-हे सखि! प्रियतम बाहर के ( एक नहीं) पाँच के स्नेह में लगे हुए हैं । जो दुष्ट दूसरे से हिल-मिल गया है, उसका आना भी नहीं दिखलाई पड़ता
है ।
भावार्थ - सुमति रूपी सखि अपनी सहेली कुमति को समझाती हुई कहती है कि चेतनरूपी प्रियतम एक नहीं, पाँचों इन्द्रिय रूपी नारियों के प्रेम-पाश में आबद्ध है । इसलिए पता ही नहीं चलता है कि कब किस इन्द्रिय के आलिंगन में संलग्न हो जाता है । पाँचों इन्द्रियों और उनके कार्य-व्यापारों (विषयों) में वह इतना विमोहित हो गया है कि उसका आवागमन सतत इन्द्रियों के विषयों की ओर होता रहता है । सुमति को यह प्रत्यक्ष रूप से न तो दिखलाई पड़ता है और न यह पता चलता है कि वह इनसे कैसे हिल-मिल गया है? केवल अनुभव से ही जाना जाता है कि वह अपने घर में सुमति रानी के पास नहीं रहता। उसके अपने पास में न रहने के कारण वह अनुमान से जानती है कि प्रिय किसी अन्य से स्नेह करने लगा है। लेकिन प्रिय
इसकी कोई चिन्ता नहीं है। जब तक चेतन इन्द्रियों (मन) के अधीन रहेगा, तब तक विषय-भोगों में संलिप्त रहेगा और भोगों में आसक्त चेतना कभी भी आत्मानुभव के आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकती। विषय - सुखों की 'चाह' ही सांसारिक जीव की विडम्बना है । यही कारण है कि आज तक नन्दनवन (शुद्धात्मा) में प्रवेश नहीं हुआ।
1. अ, द पंचहिं; क पंचहे ; ब, स पंचहि ; 2. अ, क, ब, स णेहडउ; द मेहडउ; 3. अ, क, ब, स पियस्स द पयस्स; 4. अ तास; क, ब तासु द, स जासु; 5 अ मिलिय; क, द, ब, स
मिलिउ ।
70:
पाहु