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________________ जब तक पराई दृष्टि है, तब तक राग-द्वेष, मोह हैं और इनसे एकता होने पर ही संसार है। किन्तु जब दृष्टि पलट जाती है, पर से हटकर स्वभाव - सन्मुख हो जाती है, तब संसार से चित्त हट जाता है और अपने स्वभाव में लग जाता है। आत्म-प्रीति होने पर संसार की किसी भी वस्तु में प्रीति नहीं होती। क्योंकि यथार्थ में दृष्टि, रुचि और प्रीति एक से ही होती है । उक्त दोहे में 'ऊँट' को मन के प्रतीक रूप में प्रयुक्त किया गया है। ऊँट चंचल प्रकृति तथा संग्रहवृत्ति वाला पशु कहा गया है। इसलिए अपभ्रंश और हिन्दी के कवियों ने 'ऊँट' शब्द का प्रयोग मन के प्रतीक रूप में किया है। ढिल्लउ होहि ' म इंदियह' पंच विणि' निवारि । एक्क' णिवारहि जीहडिय' अण्ण" पराइय णारि ॥44 ॥ शब्दार्थ - ढिल्लउ - ढीले होहि - होओ; म - मत ; इंदियहं - इन्द्रियों के ( विषयों में); पंचई - पाँचों ( में से); विण्णि- दोनों (को); णिवारि - रोको; एक्क - एक; णिवारहि - रोके; जीहडिय - जीभ ( को ); अण्ण-अन्य पराइय - पराई; णारि-नारी ( को ) । 1 अर्थ- इन्द्रियों के विषयों में ढीला नहीं होना चाहिए । पाँचों इन्द्रियों के विषयों में से कम से कम दो को तो रोकना ही चाहिए - एक जीभ को और दूसरी पर - स्त्री को 1 भावार्थ - शरीर, इन्द्रियाँ, द्रव्य, विषय, वैभव और स्वामी के सम्बन्ध व्यवहार से मेरे कहे जाते हैं । परमार्थ में तो एक अखण्ड ज्ञायक मात्र हूँ। वास्तव में जब पर से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, तब पाँचों इन्द्रियों के विषयों में छूट या ढील नहीं देनी चाहिए। यद्यपि इन्द्रियों के विषय आत्मा के दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुणों का हरण नहीं करते ( योगसार, 5, 18 ) तथा निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध होने के कारण इन्द्रियों के विषयों में जाते हुए मन को रोकने का उपदेश दिया जाता है। क्योंकि आयु गल जाती है, मन और आशा नहीं गलती । मोह प्रायः उभरता रहता है, किन्तु आत्महित उत्पन्न नहीं होता। मुनि योगीन्दुदेव कहते हैं कि जिस तरह से मन विषयों में रमता है, उसी तरह से निज शुद्धात्मा में रमता, तो हे योगियो ! यह जीव शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त कर लेता । अतः छोड़ने योग्य तो सभी इन्द्रियों के विषय हैं। लेकिन 1. अ होइ; क, द, ब, स होहि; 2. अ इंदियह; क, द, ब, स इंदियह; 3. अ, क, ब पंचइ; द, स पंचह; 4. अ, ब बंधणि; क, द, स विण्णि; 5. अ, द, ब, स एक्क; क एक; 6. अ जीहडीय; ब जीहडिव; क, द, स जीहडिय; 7. अ, क, द, स अण्ण; ब अवर । 68 : पाहुडद
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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