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अप्पिं अप्पु मुणंतु जिउ सम्मादिठ्ठि हवेइ।
सम्माइट्ठिउ जीवडउ लहु कम्मइँ मुच्चेइ ॥-परमात्मप्रकाश, 1, 76 अर्थात्-अपने को अपने से जानता हुआ यह जीव वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान से परिणत अन्तरात्मा स्व शुद्धात्मा को जानता हुआ अनुभव करता हुआ वीतराग सम्यग्दृष्टि होता है। सम्यग्दृष्टि जीव शीघ्र ही ज्ञानावरणादि कर्मों से मुक्त हो जाता है। अतः उस स्थिति में वह किसी वन्दना करेगा? वन्दना करने का विकल्प ही वहाँ उत्पन्न नहीं होता।
उपलाणहिं जोइय' करहुलउ दावणु छोडिहिं जिम चरइ। जसु अक्खयणी रामा गयउ मणु सो किम बुहु जगि
रइ करइ ॥43॥ शब्दार्थ-उपलाणहिं-पलान (पल्याण, पलेंचा) को; जोइय-देखकर; करहुलउ-करभ (ऊँट); दावणु-दामन, बन्धन; छोडिहिं-छुड़ाकर; जिम-जिस प्रकार; चरइ-चरता, खाता है; जसु-जिसका; अक्खमयी-अक्षयिनी, रामा-(मुक्ति) रमा; गयउ-गया हुआ, मणु-मन, सो-वह; किम-किस प्रकार; बुहु-बुद्धिमान; जगि-जगत पर; रइ-रति, प्रेम; करइ-करता (कर सकता) है।
अर्थ-जिस प्रकार ऊँट पलान को देखकर बन्धन छोड़कर चरने के लिए निकल पड़ता है, वैसे ही अक्षयनिधि स्वरूप मुक्ति-रमा के प्रति गया हुआ (ज्ञानी
का) मन इस संसार के ऊपर प्रीति कैसे कर सकता है? - भावार्थ-लोक में कोई भी प्राणी पराधीन होकर नहीं रहना चाहता है। दूसरे के अधीन होकर रहना, दूसरे पर निर्भर रहना या गुलाम बनकर रहना सबसे बड़ा दुःख है। इसलिए स्वतन्त्रता सबको प्यारी है। ऊँट जैसा पशु भी बन्धन खुलते देखकर खुले मैदान में तुरन्त चरने के लिए निकलकर भागता है। इसी प्रकार अतीन्द्रिय ज्ञान-आनन्द के धनी का मन मोक्ष रूपी लक्ष्मी के पास पहुंचते ही संसार से घबराकर उदासीन हो जाता है। संसार के प्रति उसके मन में रस नहीं रह जाता है। जो अज्ञानी जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म, शरीरादि नोकर्म रूप परद्रव्य में लीन हैं, वे नर-नरकादि रूप पर पर्यायों में मग्न हो रहे हैं, इसलिए निश्चय से मिथ्यादृष्टि हैं।
1. अ उपलाणहि; ब उपलाणिहि; क, द, स उपलाणहिं; 2. अ जोइहु; द, ब, स जोइय; 3. अ दावण; व दांवण; क दाम्वणु; द, स दावणु; 4. अ छोडिहिं; ब छोडइ; क, द, स छोडहि; 5. अ, अखइणि, ब, स अक्खइणि, क, द अखइणि; 6. अ रामद; ब, स रामय; क, द रामई।
पाहुडदोहा : 67