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________________ सम्पूर्ण लोक-अलोक प्रकाशमान होते हैं, भासते हैं। (परमात्मप्रकाश 1, 102) वास्तव में यह आत्मस्वरूप या भगवान् आत्मा की विशेषता है कि जो उसका अवलोकन करता है, उसे समस्त लोकालोक दृष्टिगोचर होता है। आत्मा का स्वभाव वीतराग, निर्विकल्प है। जिनदेव भी वीतराग, निर्विकल्प समाधि में लीन हैं। उनके ज्ञान में तीनों लोकों के चर-अचर पदार्थ एक साथ एक समय में झलकते हैं। इसलिए जिसने आत्मस्वभाव का दर्शन कर लिया, उसे परमात्म स्वरूप चैतन्य पदार्थ तीनों लोकों में व्याप्त दिखलाई पड़ते हैं। वास्तव में अपने स्वभाव को देखने से समस्त लोक भी दृष्टिगोचर होता है। क्योंकि सभी स्थानों पर चेतन पदार्थ समान रूप से चैतन्य स्वरूप को लिए हुए हैं। जो आत्मस्वभाव में संलीन पुरुष हैं, उनके प्रत्यक्ष ज्ञान में यह विशेषता होती है कि उनके आत्मस्वभाव में समस्त लोकालोक शीघ्र दिखाई देने लगता है। (परमात्मप्रकाश, 1, 100) अतः एक निज शुद्धात्मा को जानने से तीन लोक जान लिया जाता है। बुज्झहु बुज्झहु जिणु भणइ को बुज्झइ' हलि अण्णु। अप्पा देहह' णाणमउ छुडु बुज्झियउ विभिण्णु ॥1॥ शब्दार्थ-बुज्झहु बुज्झहु-बूझो, बूझो, जानो, जानो; जिणु भणइ-जिन (देव) कहते हैं; को बुज्झइ-कौन (को) जानते (हो); हलि-अरे!; अण्णु-अन्य; अप्पा-आत्मा; देहहं-देह से; णाणमउ-ज्ञानमय (होने से), छुडु-यदि; बुज्झियउ-जान लिया; विभिण्णु-विभिन्न, अलग। . अर्थ-जिनदेव कहते हैं कि जानो! जानो! यदि ज्ञानस्वरूपी आत्मा को देह से भिन्न जान लिया, तो फिर अरे! अन्य को जानने से क्या? भावार्थ-उक्त अभिप्राय से युक्त एक दोहा ‘परमात्मप्रकाश' (अ. 1, दो. 104) में प्रकारान्तर से है जिसमें यह कहा गया है कि जिस आत्मा के जानने से निज और पर सभी पदार्थ जान लिए जाते हैं, उसी आत्मा को स्वसंवेदन ज्ञान के बल.से.जानो। प्रभाकर भट्ट विनयपूर्वक ज्ञान का स्वरूप पूछता हुआ कहता है-हे भगवन्! जिस ज्ञान से क्षणभर में अपनी आत्मा जानी जाती है, वह परम ज्ञान ही मेरे लिए प्रकाशित करें। अन्य विकल्प-जालों से क्या लाभ है? यथार्थ में ज्ञान निर्विकल्प, अतीन्द्रिय, स्वसंवेदन ज्ञानगम्य प्रत्यक्ष है। साधु वीतराग दशा इसलिए धारण कर लेते हैं कि वे अपने स्वभाव को पाँचों इन्द्रियों के विषयों से, राग-द्वेष, . 1. अ, क, व बुज्झइ; द, स बुज्झ3; 2. अ, ब देहह; क, द देहहं। पाहुडदोहा : 65
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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