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________________ भावार्थ-आचार्य अमितगति कहते हैं कि किसी भी समय में चेतन आत्मा के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द, देह, इन्द्रियाँ आदि स्वभाव से नहीं होते। (योगसार, 1, 53) चेतन का स्वभाव ज्ञान-आनन्दमय है। ज्ञान की यह विशेषता है कि वह ज्ञेय को जानता हुआ ज्ञेयरूप नहीं होता। जिस प्रकार नेत्र रूप को ग्रहण करते हुए रूपमय नहीं हो जाते, वैसे ही ज्ञान भी कभी ज्ञेयरूप नहीं हो जाता। ज्ञान का काम जानने का है, ज्ञेयरूप परिणमन करने का नहीं है। ज्ञान का यह स्वभाव है कि वह अपने को और पर को जानता है। ज्ञान की यह महिमा है कि वर्तमान, भूत और भविष्यत् तीनों कालों के सत्-असत् पदार्थ सभी एक साथ उसके विषय होते हैं। ज्ञान की स्वच्छता का ही यह परिणमन है कि केवलज्ञान में तीनों कालों और तीनों लोकों के सभी पदार्थ एक साथ एक समय में झलकते हैं, प्रतिबिम्बित होते हैं। जब तक ज्ञान राग-द्वेष की पराधीनता से सहित है, तब तक सम्यक्चारित्र नहीं होता। वास्तव में स्वाधीन ज्ञान ही सम्यक्चारित्र है। कर्म का मल धोने में सम्यक्चारित्र ही समर्थ है। इसलिए निर्मोही और वीतरागी होने के लिए वीतराग स्वभावी निज शुद्धात्म-स्वभाव की भावना और उसी में अनुराग किंवा एकत्व बुद्धि होनी चाहिए। तिहुवणि दीसइ देउ जिणु जिणवरु तिहुवणु एउ।। जिणवरु दीसइ सयलु जगु को वि ण किज्जइ भेउ ॥40॥ शब्दार्थ-तिहुवणि-तीन भुवन में; दीसइ-दिखलाई पड़ता है; देउ जिणु-जिनदेव; जिणवरु-जिनों में श्रेष्ठ; तिहुवणु-तीनों लोक; एउ-ये; जिणवरु-जिनवर (के ज्ञान में); दीसइ-दृश्यमान होता है; सयलु-सम्पूर्ण जगु-जगत; कोवि-कोई भी; ण किज्जइ-नहीं किया जाता है; भेउ-भेद। अर्थ-तीनों लोकों में एक देव जिनदेव दिखलाई पड़ते हैं और तीनों लोक उन जिनवर में झलकते हैं। जिनवर के ज्ञान में सम्पूर्ण लोक एक साथ प्रतिबिम्बित होता है। अतः इसमें कोई भेद नहीं करना चाहिए। भावार्थ-जिसने चैतन्य प्रकाश का अवलोकन कर लिया है, उसे चारों ओर परम ज्योतिस्वरूप भगवान् आत्मा या परमात्मा ही दृष्टिगोचर होता है। मुनिश्री योगीन्दुदेव कहते हैं-जैसे ताराओं का समूह निर्मल जल में प्रतिबिम्बित प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ता है, उसी तरह मिथ्यात्व रागादि विकल्पों से रहित स्वच्छ आत्मा में 1. अ, ब, स तिहुवणि; क, द तिहुयणि; 2. अ देव; क, द, ब, स देउ; 3. अ तिहुअण; ब तिहुवण; क तिहुयणु; क, द तिहुवणु। 64 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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