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अप्पा मेल्लिवि' णाणमउ अवरु परायउ भाउ। सो ठंडेविणु जीव तुहुं झायहि सुद्धसहाउ ॥38॥
शब्दार्थ-अप्पा-आत्मा (को); मेल्लिवि-छोड़कर; णाणमउ-ज्ञानमय; अवरु-अन्य; परायउ-पराया; भाउ-भाव; सो-वह; छंडेविणु-छोड़कर; जीव; तुहुँ-तुम; झायहि-ध्याओ; सुद्धसहाउ-शुद्धस्वभाव।
अर्थ-हे जीव! ज्ञानमय आत्मा के (भाव के) अतिरिक्त अन्य सभी भाव परभाव हैं। उनको छोड़कर तुम अपने शुद्ध स्वभाव का ध्यान करो।
भावार्थ-यथार्थ में ज्ञानी को ज्ञान भाव के अतिरिक्त अन्य कुछ भी अच्छा नहीं लगता। तीन लोकों में ज्ञान ही एक सुन्दर वस्तु है। जो सहज सुन्दर है वह अच्छी लगती ही है। परमात्म पदार्थ को जानने वाले का मन विषयों में नहीं लगता है। अपने ज्ञानमय सहज स्वभाव के अलावा जो भी भाव हैं, वे पराये भाव हैं और पराये पराये ही होते हैं, क्योंकि वे अपने नहीं होते। जिसने वीतराग सहजानन्द अखण्ड अतीन्द्रिय सुख में तन्मय परमात्मतत्त्व को जान लिया है, उसे यह पूर्ण निश्चय हो जाता है कि जो विषय-वासना के अनुरागी हैं, वे अज्ञानी हैं; क्योंकि ज्ञानियों का जीव तो ज्ञान और वैराग्य से भरपूर होता है। इसलिए उनका मन विषयों में नहीं रमता है। (द्रष्टव्य है-परमात्मप्रकाश, 2, 77) ___ यथार्थ में जिनको उत्तम वस्तु मिल जाती है, उनका मन तुच्छ वस्तुओं की ओर नहीं जाता। ठीक इसी प्रकार जिसने वीतराग सहजानन्द अखण्ड सुख में तन्मय परमात्मतत्त्व को जान लिया है, वह विषय-वासना का अनुरागी नहीं हो सकता। उसका मन विषय-विकार से सहज ही विरक्त रहता है।
वण्णविहूणउ णाणमउ जो भावइ सब्भाउ। संतु णिरंजणु सो जि सिउ तहिं किज्जइ अणुराउ ॥39॥ .. शब्दार्थ-वण्णविहूणउ-वर्ण-विहीन (रंग रहित); णाणमउ-ज्ञानमय; जो; भावइ-भाता है; सब्भाउ-सद्भाव, स्वरूप; संतु णिरंजणु-सन्त, 'निरंजन; सो-वह; जि-ही; सिउ-शिव (सिद्ध भगवान); तहिं-वहीं, उसी . में; किज्जइ-किया जाता है, करना चाहिए; अणुराउ-अनुराग, प्रेम।
अर्थ-राग-रंग से विहीन, ज्ञानमय जो निज स्वभाव की भावना भाता है एवं जो सन्त, निरंजन है, वही शिव है तथा उसी में अनुराग करना चाहिए।
1. अ, ब, स मेल्लिवि; क, द मिल्लिवि; 2 अ, ब, अवर; क, द, स अवरु; 3. अ, क, ब, स झायहि; क, द झावहि। 4. अ, ब तहि; क, द, स तहिं।
पाहुडदोहा : 63