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तरुणउ बुड्ढउ' बालु हउँ सूरउ' पंडिउ दिव्बु । खवणउ वंदउ सेवडउ' एहउ चिंति म सव्वु ॥33॥
शब्दार्थ-तरुण-तरुण, नवयुवक; बुड्ढउ-बूढ़ा; बालु-बालक; हउं-मैं; सूरउ-शूर (वीर); पंडिउ दिब्बु-पण्डित दिव्य (विलक्षण); खवणउ-क्षपणक (दिगम्बर नग्न); वंदउ-वन्दक-भगवा भेषधारी; सेवडउ-सेवड़ा (श्वेताम्बर); एहउ-ऐसी; चिंति-चिन्ता; म सव्व-मत (करो) सब।
अर्थ-मैं जवान हूँ, बूढ़ा हूँ, बालक हूँ, शूरवीर हूँ, दिव्य पण्डित हूँ, क्षपणक (दिगम्बर), वन्दक (भगवा वस्त्रधारी), श्वेताम्बर हूँ-इस सब की चिन्ता मत कर।
भावार्थ-यद्यपि व्यवहार की दृष्टि से तरुण-वृद्ध-बालक आदि शरीर के भेद आत्मा के कहे जाते हैं, लेकिन परमार्थ से ये सभी भेद शुद्धात्म स्वभाव रूप परमात्मा से भिन्न हैं। ___ यह दोहा ‘परमात्मप्रकाश' (1, 82) में प्रथम अधिकार में किंचित् अन्तर लिए हुए मिलता है। इसके भावार्थ में कहा गया है-“यद्यपि व्यवहार नय कर ये सब तरुण-वृद्धादि शरीर के भेद आत्मा के कहे जाते हैं, तो भी निश्चय नय कर वीतराग सहजानन्द एक स्वभाव जो परमात्मा उससे भिन्न हैं। ये तरुणादि विभाव पर्याय कर्म के उदय कर उत्पन्न हुए हैं, इसलिए त्यागने योग्य हैं, तो भी उनको साक्षात् उपादेय रूप निज शुद्धात्म तत्त्व में जो लगाता है अर्थात् आत्मा के मानता है, वह अज्ञानी जीव बड़ाई, प्रतिष्ठा, धन का लाभ इत्यादि विभाव परिणामों के अधीन होकर परमात्मा की भावना से रहित हुआ मूढ़ात्मा है, वह उसे जीव के ही भाव मानता
देहहो पिक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि।
जो अजरामरु बंभु परु सो अप्पाण' मुणेहि ॥34॥ ___शब्दार्थ-देहहो-शरीरका; पिक्खिवि-देखकर; जरमरणु-जरा-मरण (बुढ़ापा, मृत्यु); मा भउ-मत भय; जीव; करेहि-करो; जो; अजरामरु-अजर, अमर; बंभु-ब्रह्म; परु-परम; सो-वह; अप्पाण-अपने (को); मुणेहि-जानो।
1. अ, ब, स बुड्डउ; क, द बूढउ; 2. अ णवि; क, द, ब, स हउं; 3. अ सूरो, क, द, ब, स सूरऊ; 4. अ, द, ब, स सेवडउ; क सेउडउ। 1. अ सो; क, द, ब, स जो; 2. अ, द बंभपरु; क, ब, स बंभु परु; 3. अ, द, ब, स अप्पाण; क अप्पणा।
पाहुडदोहा : 59