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णवि गोरउ णवि सामलउ णवि तुहुँ' एक्कु वि वण्णु । वि तणु अंगउ थूलु णवि एहउ जाणि सवण्णु ॥31॥
शब्दार्थ - - णवि गोरउ-न गोरे; गवि सामलउ - न साँवले; णवि तुहुँ - नहीं तुम; एक्कु वि-एक भी; वण्ण-वर्ण (रंग); वि तणु अंगउ-नहीं दुबले-पतले अंग (वाले); थूलु णवि - मोटे नहीं; एहउ - ऐसा ; जाणि - जानो; सवण्णु-अपने वर्ण (जाति के हो) ।
अर्थ- - न तुम गोरे हो, न साँवले । तुम एक भी रंग के नहीं हो । न तुम दुबले अंग के हो और न स्थूल हो। इन सबको तुम अपनी जाति का मत समझो। भावार्थ - भेद - विज्ञान की भावना का स्वरूप बताने के लिए परमार्थ से आत्मा को ध्यान में रखकर यह कहा जा रहा है कि आत्मा न तो सफेद है और न काला। उसके कोई भी रंग नहीं है । न आत्मा दुबला-पतला है और न मोटा । ये सब जड़ पदार्थ के गुण हैं । इसलिए तुम अपनी चेतन जाति से भिन्न जाति का इनको समझो।
यह दोहा कुछ अन्तर के साथ 'परमात्मप्रकाश' (1, 86 ) के प्रथम अधिकार में मिलता है। इसमें कहा गया है कि ये गोरे-काले आदि गुण-धर्म शरीर के सम्बन्ध से जीव के कहे जाते हैं, किन्तु वास्तव में शुद्धात्मा से भिन्न कर्म से उत्पन्न हैं । इसलिए ये त्यागने योग्य हैं। जो ज्ञानी हैं, वे इनको अपना नहीं समझते हैं । वास्तव में वर्ण, गन्ध, रस आदि गुण जड़ पदार्थ में पाए जाते हैं । अतः काला - गोरा आदि रंग आत्मा के कैसे हो सकते है? यह तो ठीक उसी प्रकार है, जैसे हम रात-दिन - कहते रहते हैं कि शक्कर की बोरी खाली कर दो । यथार्थ में आज तक बोरी से कोई चीनी या शक्कर बनकर तैयार नहीं हुई; केवल बोरी के संयोग में रहने के सम्बन्ध के कारण 'शक्कर की बोरी' इस नाम से व्यवहार चलाने के लिए पुकारी जाती है । इसी प्रकार जब तक आत्मा शरीर में रहता है, उस शरीर की होनी वाली सारी क्रियाएँ आत्मा की कही जाती हैं। लेकिन यह सब औपचारिक . कथन है।
4. अ, द, ब, स सामलउ; क सावलउ; 2. अ तुहु; क, द, ब, स तुहुं; 3. अ इक्कु; क, द, बस एक्कु; 4. अ णिवण्णु; क, द, ब, स सवण्णु ।
दोहा : 57