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________________ पुण्णु वि पाउ वि कालु णहु' धम्मु अहम्मु ण काउ। एक्कु वि जीव ण होहि तुहुँ मेल्लिवि' चेयणभाउ ॥30॥ शब्दार्थ-पुण्णु वि-पुण्य भी; पाउ वि-पाप भी; कालु-समय, काल द्रव्य; धम्मु-धर्म; अहम्म-अधर्म (द्रव्य); ण काउ-नहीं शरीर; एक्कु वि-एक भी; जीव; ण होहि-नहीं हो; तुहुँ-तुम; मेल्लिवि-छोड़कर; चेयणभाउ-चेतना भाव। ___ अर्थ-हे जीव! तुम एक चेतन भाव को छोड़कर न पुण्य, न पाप, न काल, न आकाश, न धर्म, न अधर्म और न शरीर हो। भावार्थ-आत्मा एक चैतन्य भाव है। वह सदा चेतन ही रहता है। यद्यपि पुण्य रूप शुभ कर्म और पाप रूप अशुभ कर्म भावकर्म से पैदा होते हैं, लेकिन जीव की संयोगी दशा में उत्पन्न होने के कारण व्यवहार से शुभ, अशुभ भावों को आत्मा का कहा जाता है। क्योंकि यदि आत्मा शुभ, अशुभ भाव रूप हो, तो फिर शुद्ध भाव रूप कौन होता है? वास्तव में तो अनादि काल से लेकर आज तक आत्मा शुद्धभाव स्वरूप है और उसी रूप परिणमन करता है, लेकिन संयोगी भावों में राग-द्वेष मोह का संयोग होने से प्राणी को ऐसा भ्रम होता है कि आत्मा शुभ, अशुभ भावरूप परिणमन करती है। जैसे सोना-चाँदी में चाहे जितनी मिलावट की जाए, सोना आदि धातुएँ अपना मूल रूप कभी नहीं छोड़तीं, वैसे ही आत्मा हर हालत में आत्मा ही रहता है। उसमें कभी भी अचेतन का अंश मात्र भी प्रवेश नहीं होता। अतः आत्मा अपने स्वरूप में शुद्ध ही है। इससे मिलती हुई गाथा ‘परमात्मप्रकाश' में इस प्रकार है पुण्ण वि पाउ वि कालु णहु धम्माधम्मु वि काउ। एक्कु वि अप्पा होइ णवि मेल्लिवि चेयण-भाउ ॥1, 92 अर्थात-अपने चेतनभाव को छोड़कर पुण्य रूप शुभकर्म, पापरूप अशुभकर्म, भूत-भविष्य-वर्तमानकाल, आकाश, धर्म-अधर्म द्रव्य, शरीर इनमें से एक भी आत्मा नहीं है। भावार्थ यह है कि अज्ञानी जीव पराये द्रव्य तथा पराये भाव को अपने साथ जोड़कर उनसे तन्मय होकर एकत्व स्थापित करता है, किन्तु वास्तविकता यह है कि आत्मा उन सभी से भिन्न एवं पृथक् है। 1. अ, द, सणहु; क णउ, ब णवि; 2. अ कालु; क, द, ब, स काउ; 3. अ तुहुः क, द, ब, स तुहं; 4. अ मिल्लिवि; क मिल्लिअ, ब, स मेल्लि 'मेल्लिसच्चेयणभाउ'। 56 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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