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णवि तुहुँ' कारणु कज्जु णवि णवि सामिउ णवि भिच्चु । सूरउ कायरु जीव णवि णवि उत्तमु णवि णिच्चु ॥29॥
शब्दार्थ-णवि-नहीं; तुई-तुम; कारणु-कारण; कज्जु णवि-कार्य नहीं; णवि सामिउ-स्वामी नहीं; भिच्चु-भृत्य, सेवक; सूरउ-शूर (वीर); कायरु-कायर, डरपोक; जीव णवि-जीव नहीं; णवि उत्तमु-न उत्तम (हो); णवि णिच्चु-नहीं नीच।
अर्थ-न तुम कारण हो (किसी के) और न कार्य; न तुम स्वामी हो, न सेवक; न शूरवीर हो, न कायर; न तुम उत्तम हो और न नीच।
भावार्थ-दुनिया के लोग अपने जन्म में कोई माता-पिता को कारण मानते हैं और कोई ईश्वर को जनक मानते हैं। लेकिन आत्मा का जन्म न तो किसी से होता है और न वह स्वयं किसी को जन्म देता है। इसी प्रकार किसी वस्तु के उत्पादन या जन्म होने में आत्मा न तो कारण है और न किसी अन्य वस्तु या शक्ति (जो चेतन से भिन्न है) का वह कार्य है। ज्ञान-आनन्द स्वरूपी आत्मा स्वयं के ज्ञान को प्रकट या प्रकाशित करने में कारण है और ज्ञान-आनन्द ही उसका कार्य है। व्यवहार में यह कहा जाता है कि गुरु के बिना, शास्त्र के बिना ज्ञान नहीं होता। यह कथन निमित्त कारण की उपेक्षा है। ज्ञान होने में बाहरी साधन गुरु, शास्त्र हैं। लेकिन वे साधन या निमित्त मात्र हैं। विद्या प्राप्त करने के लिए शिक्षक बाह्य निमित्त या साधन मात्र है। शिक्षक के बार-बार समझाने पर भी शिक्षा प्राप्त करने वाला यदि समझता नहीं है, तो फिर वह कैसा साधन है? इसलिए शिक्षक साधन मात्र है। अन्तरंग साधन तो समझ ही है। इस प्रकार से आत्मा न तो किसी के लिए कोई निमित्त कारण है और न किसी कारण का कार्य है। आत्मा तो जो है, वह है। उसके मूल स्वरूप में कभी भी कोई परिवर्तन नहीं होता। वह जैसी है, वैसी ही हमेशा रहती है। जो भी बदलाव अनुभव में आता है, वह सब बाहरी व संयोगी है। उसका कारण कर्म है और जो दशा बदलकर नई अवस्था होती है, वह कर्म का कार्य है; आत्मा न तो कारण है और न भौतिक साधनों से होने वाला कार्य है। यदि आत्मा अन्य का कारण और कार्य हो जाए, तो फिर अध्यात्म कुछ नहीं रह जाएगा।
1.
तुह; क, द, ब, स तुहुं; 2. अ कज्ज; क, द, ब, स कज्जु।
पाहुडदोहा : 55