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मानना होगा। यही नहीं, भावकर्म और जीव में फिर कोई अन्तर नहीं रहेगा। इस प्रकार अन्ततः जीव और कर्म एक सिद्ध हो जाएँगे। वस्तु-स्थिति यह है कि जीव भिन्न है और कर्म भिन्न हैं। कर्म अचेतन हैं और जीव चेतन है। कर्म में जानने-देखने की शक्ति नहीं है; जबकि जीव जानन-देखनहारा है। यथार्थ में इन दोनों की भिन्नता का वास्तविक ज्ञान तत्त्वज्ञान होने पर भेद-विज्ञान की प्रक्रिया से होता है।
उक्त दोहे की द्वितीय पंक्ति ‘परमात्मप्रकाश' (1, 79) में ज्यों की त्यों उपलब्ध होती है।
हउं गोरउ हउं सामलउ हउं जि विभिण्णउ वण्णु । हउं तणु अंगउ थूलु हउं एउह जीव ण मण्णु ॥27॥
शब्दार्थ-हउं–मैं; गोरउ-गौर (वण); हउं सामलउ-मैं सांवला (हूँ); हउं-मैं; जि-पादपूरक (ही); विभिण्णउ-विभिन्न; वण्ण-वर्ण (रंग); हउं तणु-मैं तनु (दुबला-पतला); अंगउ थूलु-स्थूल (मोटे) अंग (वाला); हउं-मैं; एहउ-ऐसा; जीव; ण मण्णु-मत मान।
अर्थ-मैं गोरा हूँ, मैं साँवला हूँ तथा मैं विभिन्न रंगों का हूँ। मैं पतले अंग का हूँ, मैं मोटा हूँ -ऐसा मत मान।
भावार्थ-पिछले दोहों में यह कथन है कि विपरीत मान्यता के कारण प्राणी को वस्तु-स्वरूप का ज्ञान नहीं है। दूसरे शब्दों में हम वस्तु को वस्तु-स्वरूप से नहीं, वरन् उसकी अवस्थाओं से समझते हैं। इसलिए आज तक वस्तु के मूल स्वरूप से अनभिज्ञ व अनजान रहे हैं। वस्तु को सही रूप से समझने के लिए द्रव्यदृष्टि से भली-भाँति अवलोकन आवश्यक है। जैसे कि श्वेत मणि; काँच, स्फटिक और हीरा एक दृष्टि में लगभग समान दिखाई देते हैं, लेकिन दूरबीन लगाकर देखने से उनमें भिन्नता नजर आती है, वैसे ही ज्ञानस्वरूपी आत्मा और राग भिन्न-भिन्न हैं। लेकिन अज्ञानता के कारण अज्ञानी जीव दोनों को एक रूप समझते हैं। ____ 'परमात्मप्रकाश' (1, 80) में यह दोहा प्रथम अधिकार में उपलब्ध होता है। इसमें कहा गया है कि गोरा, साँवला, पतला-मोटा होना नामकर्म के भाव हैं। जो कार्य कर्म से उत्पन्न होता है, उसे प्राणी अपना आप-रूप मानता है, यही भूल है। अतः इस भूल में सुधार कर जीव के भाव को जीव का और कर्म के भाव को कर्म
1. अ, द, ब, स जि; क मि; 2. अ, क विभिण्णइ द, ब, स विभिण्णउ; 3. अ, क, ब वण्णि; द, स.वण्णु; 4. अ थूल; व थूलऊं; क, द, स थूलु; 5. अ, ब ण; क, द, स म; 6. अ, क, व मण्णि; द, स मण्णु। . .
पाहुडदोहा : 53