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हो जाने पर भी कोई अज्ञानी रह सकता है; क्योंकि शास्त्रों के जानने या पढ़ लेने से नहीं, वरन् शास्त्रों में वर्णित निज शुद्धात्मा के सच्चे बोध से अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति होती है। उस बोध का नाम ज्ञान रूप ज्ञान का अनुभव करना है। उसे स्वसंवेदन भी कहते हैं। स्वानुभव की यह प्रक्रिया स्वभाव के सन्मुख होने पर प्रारम्भ होती है। सद्गृहस्थ भी स्वानुभूति कर सकता है। साधु-सन्तों व मुनियों के यह विशेष रूप से होती है। इसके बिना कोई भी प्राणी सच्चे सुख या अतीन्द्रिय ज्ञान-आनन्द को उपलब्ध नहीं हो सकता। आत्मज्ञान के बिना अध्यात्म प्रकट नहीं होता। यही नहीं, इसके बिना परमात्मतत्त्व की अनुभूति प्रसिद्ध नहीं होती। अतः सम्पूर्ण जिनागम में मोह को दूर करने का एक मात्र उपाय तत्त्वज्ञान कहा गया है।
बोहिविवज्जिउ जीव तुहुँ' विवरिउ तच्चु मुणेहि। कम्मविणिम्मिय भावडा ते अप्पाण' भणेहि ॥26॥
शब्दार्थ-बोहि-बोधि (तत्त्वज्ञान); विवज्जिउ-विवर्जित (रहित); जीव; तुहं-तुम; विवरिउ-विपरीत; तच्चु-तत्त्व; मुणेहि-मानते हो; कम्मविणिम्मिय-कर्म-विनिर्मित; भावडा-भाव हैं); ते-उन (को); अप्पाण-अपने; भणेहि-कहते हो। ____ अर्थ-हे जीव! तुम तत्त्वज्ञान से रहित होने के कारण तत्त्व (वस्तु-स्वरूप) को विपरीत मानते हो। जो भाव कर्मों से बने हुए हैं, उनको तुम अपना कहते हो।
भावार्थ-जिस प्राणी को तत्त्व का ज्ञान नहीं है, वह चेतन को अचेतन और अचेतन को चेतन, पराये को अपना और आप को परांया समझता है। इसलिए अज्ञानी देह को नष्ट होते देखकर जीव का मरण या सर्वथा नाश मानते हैं और शरीर को पुष्ट होते देखकर अपने को शक्तिवान मानता है। वास्तव में जीव का स्वरूप वचन के अगोचर तथा अनुभवगम्य है। जो जानता है, अनुभव करता है, वह उसे शब्दों से पूर्णरूप से नहीं कह सकता।
प्रत्येक संसारी जीव अनादि काल से राग, द्वेष, मोह आदि भाव कर्मों को जो सूक्ष्म शरीर है और प्रत्येक दशा में जीव के साथ रहता है, उसे यह अपना रूप मानता है। क्योंकि हर अवस्था में यह राग-द्वेष रूप अनुभव करता है। प्रत्यक्ष रूप से जो अनुभव में आता है और जिसके साथ सदा काल रहता है, उसे ही भ्रम से अपना मानता है। वस्तु-स्वरूप की दृष्टि से देखा जाए, तो राग-द्वेष जीव के स्वभाव में नहीं हैं। यदि इनको जीव का स्वभाव मान लिया जाए, तो फिर भगवान् को भी रागी-द्वेषी
1. अ तुहु; ब, स तुहं; क, द तुहूं; 2. अ, ब मुणे, क, द, स मुणेहि; 3. अ भावडइं; क, द, ब, स भावडा; 4. अ, द, ब अप्पाण; क, स अप्पणा; 5. अ, स भणेहिं; व भणे; क, द भणेहि।
52 : पाहुडदोहा