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________________ लेकिन जिनवर के वचनों की प्रतीति न करने से सब स्थानों पर और सभी योनियों में भ्रमण कर चुका है। जीव किसी भी योनि में एक स्थान पर स्थिर होकर नहीं रहता, बाहर ही बाहर घूमता रहता है। आचार्य कुन्दकुन्द के 'भावपाहुड' (गा. 47) में भी यह गाथा इस प्रकार है सो पत्थि तप्पएसो चउरासीलक्खजोणिवासम्मि। . भावविरओ वि सवणो जत्थ ण ढुरुकुल्लिओ जीवो ॥ __ भावार्थ यह है कि द्रव्यलिंग धारण कर निर्ग्रन्थ मुनि भी बनकर शुद्धोपयोग की साधना के बिना यह जीव चौरासी लाख योनियों में भटकता रहा। ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जिसमें मरण नहीं हुआ हो। चौरासी लाख योनियाँ इस प्रकार हैं-पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि), वायु, नित्यनिगोद और इतरनिगोद ये सभी सात-सात लाख हैं, वनस्पति दस लाख हैं, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय दो-दो लाख हैं, पंचेन्द्रिय तिर्यंच चार लाख, देव चार लाख, नारकी चार लाख, मनुष्य चौदह लाख; कुल मिलाकर चौरासी लाख हैं। कहने का अभिप्राय केवल इतना है कि भावशुद्धि के बिना सिद्धि नहीं हो सकती है। यथार्थ में धर्म का पालन शुद्ध भाव से ही होता है। हिन्दी के सुप्रसिद्ध मध्यकालीन कवि कबीरदास ने चौरासी लाख योनियों का उल्लेख किया है। उनके ही शब्दों में लाख चौरासीहि जानि भ्रमि आयो। -कबीर ग्रन्थावली, परिशिष्ट, पद 173 अप्पा बुज्झिउ' णिच्चु जइ केवलणाणसहाउ। ता परि किज्जइ काई वढ तणु उप्परि अणुराउ ॥24॥ ___ शब्दार्थ-अप्पा-आत्मा (को); बुज्झिउ-जाना, समझा; णिच्चु-नित्य; जइ-यदि; केवलणाणसहाउ-केवलज्ञानस्वभाव; ता-तो; परि-ऊपर; किज्जइ-किया जाता है; काई-क्यों; वढ-मूर्ख; तणु (तनु)-शरीर; उप्परि-ऊपर; अणुराउ-अनुराग, प्रेम। ___अर्थ-यदि अपने आप को नित्य तथा केवलज्ञान स्वभावी जान लिया, तो हे मूढ! इस शरीर पर ममता (अनुराग) क्यों करता है? ___ भावार्थ-यह सच है कि ज्ञानी अपने को शुद्ध, बुद्ध, एक, नित्य स्वभावी समझता है। मुनि योगीन्दुदेव कहते हैं कि जो महान् निर्मल केवलज्ञानादि अनन्त गुण 1. अ, क बुज्झहि; व बुज्झइ; द, स बुझिउ; 2. अ, ब, स परि; क, द पर; 3. अ, क, ब, स काइं; द एत्थु। 50 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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