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भावार्थ-जगत् के भौतिक ऐश्वर्य को ही सब कुछ मानकर जो अपना सम्पूर्ण पुरुषार्थ धन कमाने या प्राकृतिक सम्पदाओं को पाने में लगा देते हैं, किन्तु आत्म-भान तथा आत्म-ज्ञान से शून्य होते हैं, उनको मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि का मुख्य लक्षण यह है कि उसकी आत्मा-परमात्मा में ज्ञान-ध्यान में रुचि नहीं होती। उसे विषय-भोग ही सुहाते हैं। इसलिए वह कदाचित् जैनकुल में भी उत्पन्न हो, किन्तु वह जैनधर्म से विमुख ही रहता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि परद्रव्य में लीन होने वाला साधु भी मिथ्यादृष्टि है जो मिथ्यात्व रूप से परिणमन करता हुआ दुष्ट अष्ट कर्मों का बन्ध करता है। (मोक्षपाहुड, गाथा 15) मिथ्यादृष्टि अपने पक्ष की हठ पकड़ लेता है और अज्ञानता के कारण सच्ची बात को स्वीकार नहीं करता। जिनागम में मिथ्यादृष्टि के तत्त्व-विचार, नय-प्रमाण आदि सभी मिथ्या कहे गए हैं। आचार्य शिवकोटि कहते हैं कि संसार का मूल कारण मिथ्यात्व ही है। कर्म के बन्ध का वह प्रधान कारण है। कहा है-"संसारमूलहेदूं मिच्छत्तं सव्वधा विवज्जेहि।” (भगवती आराधना, 6, 724)
टीका-संसारमूलहेदुं संसारकारणकर्मबन्धप्रधानकारणम्।
यही नहीं, अग्नि, विष और काला साँप आदि हानिकारक होने पर भी एक ही बार मानव-जीवन के घातक हैं, लेकिन मिथ्यात्व अनेक जन्म-जन्मान्तरों का बारम्बार विघातक है। विष से बुझे हुए बाण से शरीर का एक ही अंग नहीं, उसका जहर सारे शरीर में फैलकर प्राणी को प्राणरहित कर देता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व-शल्य के विष से आहत होकर प्राणी तीव्र वेदनाओं से छटपटाता है। (वहीं, गा. 730-731)
सो णत्यि इह पएसो चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि। जिणवयणं अलहंतो जत्थ ण दुरुदुल्लिओ जीवो ॥23॥
शब्दार्थ-सो-वह; णत्थि-नहीं है; इह-यह; पएसो-प्रदेश; चउरासी 'लक्खजोणि-चौरासी लाख योनि (यों); मज्झम्मि-मध्य में; जिणवयणंजिनवचन को; अलहंतो-प्राप्त नहीं करते हुए; जत्थ-जहाँ; ण-नहीं; दरुदल्लिओ-भ्रमण किया; जीवो-जीव ने।
: अर्थ-चौरासी लाख योनियों में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहाँ जिनवचन (जिनवाणी) को प्राप्त किए बिना यह जीव भ्रमण नहीं कर चुका हो। • भावार्थ-इस जगत् में कोई भी ऐसा स्थान नहीं छूटा है जहाँ पर इस जीव ने निश्चय-व्यवहार रत्नत्रय का कथन करने वाले जिनवचनों को प्राप्त न किया हो।
- 1. अ दुलढुल्लिउ; द, ब दुरदुल्लिओ; क, स ढुरुढुल्लिओ।
पाहुडदोहा : 49